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________________ ६९८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्नव और संवर (६) अशुभकर्मों के आम्रव का दुःखद फल तो चिन्ता, कर्जदारी, अभावग्रस्तता, निर्धनता, बीमारी, पीड़ा, विपत्ति आदि के रूप में भोगना ही पड़ता है। यदि दूरदर्शी बनकर पहले ही स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य पालन का नियम ले लेता तो तन, मन, धन सबसे स्वस्थ एवं समृद्ध रहता । परन्तु आनवदृष्टि वाले अदूरदर्शी लोग संवर का सुविचार करते ही कहाँ हैं ? आम्रवदृष्टि अदूरदर्शी समय-सम्पदा को भी व्यर्थ खो देते हैं धन की तरह समय भी बहुत बड़ी सम्पदा है। समय-सम्पदा का अगर सदुपयोग किया जाए तो मनुष्य अपनी दैनिक चर्या करते हुए भी आध्यात्मिक एवं धार्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय, चिन्तन, मनन करके अपनी सबौद्धिक विचार - सम्पदा में वृद्धि कर सकता है। व्यावहारिक जीवन में कुशलता प्राप्त करने के लिए समय-सम्पदा का उपयोग मनोविज्ञान, शिक्षा, कला, इंजीनियरी, डॉक्टरी, वैद्यक, व्यवसाय प्रशिक्षण आदि का अध्ययन करके विशेष योग्यता सम्पादन कर सकता है। परन्तु आम्नवदर्शी व्यक्ति प्रमाद, आलस्य, निन्दा, विकथा, राजनैतिक चर्चा, गपशप, रागरंग, विलासिता, सैरसपाटा, आवारागर्दी, एवं साजसज्जा आदि में अधिकांश समय बर्बाद करके व्यक्ति अवकाश न मिलने का बहाना बनाता है। फलतः विशेषताओं के अभाव में मानव सारहीन, थोथा और असफल रह जाता है । ' प्रत्येक सत्कार्य करते समय उसे पहाड़-सा लगता है और वह उसे नहीं कर पाता। सुख-सुविधा और जूए आदि दुव्यर्सनों में पड़कर वे स्वयं को अकर्मण्य बना लेते हैं। अगर संवरवादी होते तो वे प्रारम्भ से अपने जीवन को ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं संयम में पुरुषार्थ करने में अभ्यस्त करते । अपना जीवन प्रमाद, कषाय, निन्दा, विकथा आदि में नहीं व्यतीत करते । परन्तु जो अदूरदर्शी होते हैं, जिन्हें अपने भावी जीवन की चिन्ता नहीं होती, वे भवाभिनन्दी या पुद्गलानन्दी विभिन्न आस्रवों के घेरे में ही अपनी गतिविधि अपनाते रहते हैं। ऐसे लोग प्रायः जिंदगी के दिन पूरे करते हुए निरर्थक जिंदगी की लाश को ढोते रहते हैं, या फिर वे दुर्भाग्य का रोना रोते हुए संसार से विदा होते हैं। संवर की बात उन्हें जरा भी नहीं सुहाती । इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था-प्रमाद को ही सभी जिनवरों कर्म यानी आम्रव कहा है, और अप्रमाद को अकर्म अर्थात्-संवर । देवदुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर भी शुभाशुभ कर्मानवों के घेरे में घूमते हैं देव-जीवन, तिर्यच - जीवन एवं नारक-जीवन आदि सबसे मनुष्य-जीवन सर्वश्रेष्ठ जीवन है। मनुष्य जीवन की प्राप्ति अति दुर्लभ बताते हुए भगवान् महावीर अखण्ड ज्योति मार्च १९७८ से भावांश ग्रहण पृ. २८ 9. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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