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________________ आम्नव मार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी ६९७ अंकुश, इन्द्रियादि विषयों पर नियंत्रण, तथा तपस्या एवं कष्ट सहिष्णुता, कषायों पर विजय की मात्रा बहुत ही कम होती है। यह संवरदृष्टि न होने का ही परिणाम है। सांसारिक अदूरदर्शी लोगों की आस्रवप्रियता .. सांसारिक अदूरदर्शी लोग प्रायः आसवदृष्टि बने रहना चाहते हैं। इसी में वे अपनी शान-शौकत और गौरव-गरिमा समझते हैं। वे आम्रवलक्ष्यी कार्यों में बेधड़क खर्च करते हैं। यह अदूरदर्शिता का बेहूदा रूप है। ऐसे लोगों की आय चाहे जितनी हो, फिर भी उनकी पूर्ति और तृप्ति नहीं होती। प्राप्त हुए पैसे को शीघ्र से शीघ्र फंके बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। उन्हें आवश्यक-अनावश्यक, हितकर-अहितकर, सावद्य-निरवद्य, या शुभ-अशुभ कार्य का कोई विवेक नहीं होता। अंधाधुन्ध खर्च करने और वाहवाही लूटने में ही वे अपनी शान समझते हैं। ऐसे लोगों का पैसा विलासिता की चीजें खरीदने, रागरंगों का आयोजन करने, अमीरी ठाठबाट दिखाने, नृत्य-गीत-समारोहों में पैसा लुटाने में, धनाधीश होने का रौब जमाने में उनका प्रचुर धन स्वाहा हो जाता है। ऐसे लोग आवश्यक वस्तुओं की कमी पड़ने पर कर्ज लेते हैं, उधार मांगते और बेईमानी करते हैं। . संचित सम्पत्ति को वे अनावश्यक कार्यों में फूंक देते हैं, और परिवार के आवश्यक उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए तथा शिक्षा, चिकित्सा, विवाह, रोग, आकस्मिक दुर्घटना जैसे आवश्यक कार्यों के लिए पैसे की जरूरत पड़ती है, तब ऐसे लोग अत्यधिक चिन्तित, असहाय और दीन-हीन बन जाते हैं। न तो वे आवश्यकअनावश्यक का विवेक कर सकते हैं, न ही अपनी आवश्यकताओं में कटौती, इन्द्रियों और मन की फरमाइशों पर संयम कर सकते हैं। फिजूलखर्ची की इस बुरी आदत के कारण ऐसे लोग जिंदगी भर आसवमार्गी ही बने रहना चाहते हैं।' आम्रवमार्गी व्यक्ति अपनी कामवासना एवं कामना पर निरंकुश ... ऐसे आसवमार्गी अदूरदर्शी व्यक्ति आँखें मूंदकर सन्तानोत्पत्ति में लगे रहते हैं। कामवासना और सुखोपभोग-लिप्सा पर वे कुछ भी अंकुश नहीं लगाते। वे यह नहीं सोचते कि भविष्य में इन बच्चों के निर्वाह, चिकित्सा, शिक्षा, विवाह, अन्न,वस्त्रादि आवश्यक साधनों के लिए कितने धन की आवश्यकता पड़ेगी। उन्हें समुचित धर्मनीति के ‘संस्कार देने और दुलार-प्यार देने में कितना समय लगाने और साधन जुटाने की जरूरत पड़ेगी। .. परन्तु जब उन बालकों के लिए आवश्यक साधन जुटाने में अपनी आजीविका एवं योग्यता स्वल्प दीखती है, तब पता चलता है कि कितनी बड़ी भूल हो गई। परन्तु उक्त . सकुश १. अखण्ड ज्योति मार्च १९७८ से यत्किंचित् भावांश ग्रहण पृ. २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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