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________________ ७०० कर्म - विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्नव और संवर (६) देखी। साथ ही उसने भलीभांति निरीक्षण-परीक्षण किया कि कहीं नौका में छेद तो नहीं है ? मझधार में ही यह धोखा तो नहीं दे देगी ? फिर वह नौका में बैठकर उसे खेने लगा। साथ ही वह बार-बार नौका का चेकिंग भी करता रहता था कि इन नौका में कहीं छिंद्र तो नहीं हो रहा है? कहीं नौका में पानी तो नहीं भर रहा है ? इस प्रकार सावधान होकर वह अपनी नौका समुद्र की छाती पर चलाता है, और एक दिन समुद्र पार कर लेता है। इसी रूपक के अनुसार उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है का छिद्रयुक्त (फूटी हुई) होती है, वह मनुष्य (नाविक) को (समुद्र के) पार तक नहीं पहुँचा सकती, किन्तु जो नौका छिद्ररहित होती है, वह समुद्र पार पहुंचा सकती है।' इसका आशय यह है कि जो व्यक्ति आनवप्रिय होता है, उनकी नौका सछिद्र होती है। उसमें कर्मजल तीव्रता से प्रविष्ट होता जाता है। ऐसी आम्नवपूर्ण नौका संसार समुद्र के उस पार व्यक्ति को न पहुँचाकर मझधार में ही डूब जाती है। इसके विपरीत जिसकी जीवन नौका आनव छिद्रों (हिंसादि आनवों के छेदों) से रहित होती है, उसमें कर्मरूपी जल बिलकुल प्रविष्ट नहीं हो पाता। ऐसी सुदृढ़ एवं निश्छिद्र संवर नौका होती है, वह उसे सही सलामत संसार समुद्र के उस पार मोक्ष के तट पर पहुँचा देती है। यह है-आनवप्रियता और संवरप्रियता का परिणाम, जिसे भगवान् महावीर के पट्टशिष्य गणधर गौतम स्वामी ने समझाया था। इसका निष्कर्ष यह है कि आनवप्रिय व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है, जबकि संवरप्रिय व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। किम्पाकफलसम कामभोगों के सेवन से जीवन का दुःखद अन्त मानव-जीवन एक गहन वन है। इसमें फूल भी हैं, कांटे भी हैं। कहीं रमणीय रूप और कमनीय सौरभ से परिपूर्ण रसीले मधुर फल भी हैं, किन्तु हैं वे विष से व्याप्त। उन फलों में लुब्ध होकर जो यात्री अपनी क्षणिक तृप्ति के लिए उतावले होकर उन फलों को खा लेते हैं, उन्हें शीघ्र ही मरण-शरण हो जाना पड़ता है। इसीलिए इन्द्रियजन्य विषयों के रमणीय कामभोगों को विषाक्त किम्पाकवृक्ष के फल की उपमा देते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है- “जैसे किम्पाकफल रस और रूप-रंग की दृष्टि से देखने और खाने में मनोरम लगते हैं, किन्तु परिणाम में वे सोपक्रम जीवन का अन्त कर देते हैं, इसी प्रकार कामभोगों के प्रति आसक्ति और उनका उपभोग 9. जाउ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणी ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - उत्तराध्ययन २३/७१ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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