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________________ ६८६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) कारण हैं, वे व्यक्ति की दृष्टि, भाव और अध्यवसाय के कारण आम्नव के कारण बन जाते हैं। पुण्य की हेयता-उपादेयता पर विहंगावलोकन निष्कर्ष यह है कि शुद्धोपयोग तो एकान्ततः उपादेय है, किन्तु शुद्धोपयोग की उच्च भूमिका पर आरूढ़ महान् पुरुष के लिए शुभोपयोग उपादेय नहीं है। निर्विकल्प परमसमाधिरूप अप्रमत्त दशा को अप्राप्त, किन्तु सविकल्पदशा युक्त महाव्रती, किन्तु सरागसंयमी मुनि के लिए शुद्धोपयोग का लक्ष्य होते हुए भी शुभोपयोग कथंचित् हेय है, सर्वथा हेय नहीं। अशुभोपयोग तो उसके लिए सर्वथा हेय है। ऐसी स्थिति में प्रमादमूर्ति, परिग्रही अथवा श्रावकव्रती सद्गृहस्थ के लिए शुभोपयोग सदैव उपादेय रहता है। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति अनेक पापों, दुर्व्यसनों आदि में पड़ा है, उसे अशुभोपयोग दशा से छुड़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए और शुभोपयोग में स्थिर करना चाहिए। यही वीतराग जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा उपदिष्ट आगमों का अभिमत है। संसार महारण्य के चार प्रकार के महायात्री प्रारम्भ में हमने महायात्रियों का जो विश्लेषण किया था, उसके अनुसार पूर्वोक्त विस्तृत विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस संसार-महारण्य का जो यात्री पुण्यमय और पापमय आनवों के भयंकर वन में भयंकरता और रमणीयता दोनों ही प्रकार के दृश्य देखता है, दोनों ही प्रकार के संयोगों का स्पर्श करता है, किन्तु वह दोनों प्रकार के दृश्यों और संयोगों से आकर्षित और लिप्त न होकर शुद्धोपयोग रूप भावसंवर और भावनिर्जरा (निर्विकल्पसमाधिरूप आत्मभावों में लीन आत्मधर्म) की भूमिका पर आरूढ़ हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह पुण्य और पाप दोनों को सर्वथा हेय समझकर इन्हें छोड़ देता है, या वे स्वतः छूट जाते हैं। दूसरे प्रकार का महायात्री अभी उतना समर्थ और सशक्त नहीं है कि कषाय और राग-द्वेषादि का पूर्णतः त्याग कर सके। किन्तु वह भयंकरता परिपूर्ण पापपथ के दृश्यों और संयोगों को तो सर्वथा हेय समझकर छोड़ देता है। रमणीयतापूर्ण पुण्य पथ के दृश्यों और संयोगों में भी वह लिप्त एवं आसक्त नहीं होता, न ही पुण्य का उपार्जन चलाकर करता है। वह पुण्यपथ को भी हेय समझता है, किन्तु संसाररूपी महारण्य को पार करने के लिए उसे सहायक मानकर उन्हें (पुण्य कार्यों को) कथंचित् उपादेय मानकर चलता है और जब अन्तिम मंजिल आ जाती है, तब उसे (पुण्यपथ को) भी सदा के लिए छोड़ देता है। वह सविकल्प अवस्था वाला मन्दकषायी मुनि महायात्री है। १. (क) जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'पुण्य और पाप की अवधारणा' लेख से, पृ. १५२ (ख) “जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा।"-आचारांग श्रु. १ अ. ४ उ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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