SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? ६८७ तीसरे प्रकार का महायात्री चलता तो इसी पुण्यपथ पर है, पापपथ को सर्वथा समझकर, किन्तु उसमें काफी प्रमाद, आत्मिक दुर्बलता और मोह की मात्रा है, जिसके कारण वह पापपथ की तरह पुण्यपथ को भी हेय समझते हुए भी छोड़ नहीं पाता। उसके लिए पुण्य के दृश्य और कार्य तथा संयोग अभी उपादेय एवं सहायक इसलिए हैं कि वह यदि इस पुण्यपथ को भी सदा के लिए छोड़ देता है, तो शुद्ध धर्म के (शुद्धोपयोग के) राजमार्ग पर तो कथमपि आरूढ़ नहीं हो सकता, फलतः वह पापपथ पर ही भटक जाता है, फिर वह संसार के भयंकर बीहड़ और चतुर्गतिक घाटियों में ही परिभ्रमण करता रहता है। इसलिए तीसरे प्रकार के सद्गृहस्थ श्रावकधर्मी यात्री के लिए सविकल्प व्रताचरणादि रूप पुण्य पथ ही श्रेयस्कर एवं उपादेय है। परन्तु चौथे प्रकार का महायात्री, जो अभी व्यवहार धर्म (नैतिकता ) की भूमिका पर भी नहीं आ पाया है, और भयंकरता से पूर्ण पापपथ को ही श्रेष्ठ समझकर चल रहा है, उसे उस हेय पापपथ को छुड़ा कर पुण्य पथ के लाभ और अल्प कठिनाइयाँ बताकर पुण्य पथ पर लाना अत्यावश्यक है। उसके लिए फिलहाल पुण्य उपादेय है। पुण्य किसके लिए कब और कब तक हेय या उपादेय है ? : निष्कर्ष स्पष्ट शब्दों में निष्कर्ष यह है कि अध्यात्म के उच्चशिखर पर पहुँचे हुए निर्विकल्पदशायुक्त साधक के लिए पुण्य और पाप दोनों ही एकान्त त्याज्य हैं। इन दोनों से मुक्त होने पर एक मात्र शुद्ध धर्म (आत्मरमण रूप) ही उसके लिए उपादेय होता है। सरागसंयमी विकल्पदशायुक्त मुनि के लिए पूर्वोक्त धर्म (संवरनिर्जरारूप) के साथ-साथ सविकल्प महाव्रताचरण तथा द्रव्यतः समिति-गुप्ति, संवर आदि के रूप में प्रशस्तरागयुक्त पुण्य कथंचित् य होता है, सर्वथा हेय नहीं । किन्तु सद्गृहस्थ श्रावकव्रती के लिए पाप तो हेय है ही, पुण्य उसके लिए कथंचित् उपादेय होता है, किन्तु वह पुण्य नहीं जो निदानयुक्त हो, सांसारिक विषयभोगों में फंसाने वाला हो या मिथ्यात्व की ओर प्रेरित करने वाला हो । इन तीनों संवर निर्जरा रूप कर्म मोक्ष लक्ष्यी महायात्रियों के अतिरिक्त जो व्यक्ति अभी पापाचरण में रत हैं, जिन्हें पुण्य ( व्यवहार धर्म) का बोध ही नहीं है, उनके लिए सर्वप्रथम पाप का यथाशक्ति त्याग कराकर पुण्य की उपादेयता बताकर उस ओर आकृष्ट करना हितावह है। साथ ही उसे यह समझाना भी आवश्यक है कि इस पुण्य के प्रभाव से प्राप्त सांसारिक सुख साधनों की भूल भुलैयां में न फंसे, ऐसा पुण्य भी उपार्जित न करे जो मिथ्यात्व तथा पापमार्ग की ओर या भोगों के महाजाल की ओर ले जाए। अतः उसके लिए पुण्य उपादेय है। इस प्रकार पुण्य की हेयता और उपादेयता को अनेकान्तवाद की सापेक्षदृष्टि से समझकर चले तो वह पुण्य और पाप के आनव को हृदयंगम करके संवरमार्ग को अपना ता है, और एक दिन कर्मों से सर्वथा मुक्त हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy