SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? • मिध्यादृष्टि का पुण्य पापानुबन्धी होता है। सम्यग्दृष्टि का पुण्य तीर्थंकर प्रकृति आदि के बन्ध का कारण होने से विशिष्ट प्रकार का है।' भोगमूलक पुण्य ही निषिद्ध है, योगमूलक नहीं पद्मनन्दि पंचविंशतिका में कहा गया है- धर्म (पुण्य), अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन, सुख से युक्त तथा सदा स्थिर रहने वाला है और शेष पुरुषार्थ उससे विपरीत (अस्थिर) स्वभाव वाले हैं। अतएव मुमुक्षु जन के लिए वे त्याज्य हैं । इसलिए धर्म (पुण्य) पुरुषार्थ, जो मोक्ष पुरुषार्थ का साधक होता है, वह हमें अभीष्ट है, किन्तु जो धर्म केवल भोगादि का कारण होता है, उसे विद्वज्जन (एक प्रकार से) पाप ही समझते हैं। ६८५ इसलिए कहा गया है कि “यद्यपि व्यवहार धर्म पुण्य प्रधान होता है, तथापि यदि वह निश्चय धर्म ( श्रुत-चारित्र धर्म) की ओर झुका हुआ हो तो परम्परा से संवर निर्जरा व मोक्ष का कारण' हो जाता है। जब सम्यग्दृष्टि जीव द्वारा पुण्य की सक्रियाएँ (अर्थात् ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि लौकिक एवं व्यावहारिक धर्म के कार्य ) `अनासक्तभाव (अथवा कषायरहित भाव) से की जाती हैं, तो वे शुभबन्ध या शुभास्रव int कारण न होकर संवर और निर्जरा का (कर्मक्षय का) कारण भी बन जाती हैं। इसके विपरीत संवर-निर्जरारूप सद्धर्म के कारणभूत संयम और तप की शुद्ध क्रियाएँ भी जब आसक्तभाव से या लोभ, भय, स्वार्थ, प्रशंसा, प्रतिष्ठा या भोगवांछा (निदान) से प्रेरित होकर की जाती हैं, तो वे कर्मक्षय या मोक्ष का कारण न होकर कर्मबन्धक और संसारवर्धक बन जाती हैं। फिर भले ही उन धर्मक्रियाओं या तपश्चरण-धर्माचरण से पौद्गलिक सुख या. सुखभोग सामग्री प्राप्त हो जाए, किन्तु वे द्रव्य से संवर निर्जरा की क्रियाएँ होकर भी भाव से कर्मबन्धक एवं संसारवर्द्धक ही होती हैं। इसी दृष्टि से आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा गया है - जो आनव के कारण हैं, वे परिस्रव ( संवर निर्जरा) के कारण हो जाते हैं और जो परिस्रव ( संवर निर्जरा) के १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भा. ३, पृ. ६५ २. (क) “पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः । शेषास्तद् विपरीत धर्मकालिता हेया मुमुक्षोदतः । तस्मात्तत्पदसाधनत्व धरणो धर्मोऽपि नो सम्मतः । Jain Education International यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते ॥" - पद्मनन्दि पंचविंशतिका ७/२५ (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भा. ३, पृ. ६५. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy