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________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय? ६७९ अशुभ, पाप और दुःख, ये तीन त्याज्य हैं। तथा पूर्वोक्त शुभ, पुण्य और सुख, इनमें से प्रथम शुभ का त्याग होने पर पुण्य और इन्द्रिय जनित सुख तो स्वयमेव दूर जाऐंगे। तथा रागद्वेष रहित औदासीन्य रूप शुद्ध परिणति प्राप्त हो जाने पर शुभ का त्याग करके जीवन मोक्षरूप उत्कृष्ट पद को पा लेता है।' पुण्य की दो उपलब्धियां : कर्ममुक्त सिद्ध परमात्मा या अल्पकर्मा महर्द्धिकदेव उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन में शुद्धोपयोगाभ्यासी शुभोपयोगी विनीत शिष्य को प्राप्त होने वाली बारह उपलब्धियों में “देहत्याग के पश्चात् एक उपलब्धि यह बताई है कि या तो वह शाश्वत, सर्वथा कर्ममुक्त सिद्ध परमात्मा बनता है, अथवा अल्पकर्मा महर्द्धिक देव बनता है। पुण्य से प्राप्त होने वाले महालाभ और उसके उपार्जन की प्रेरणा पुण्य की महिमा एवं उसके फल का कुरलकाव्य में स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा गया है-"धर्म (पुण्यकार्य-सत्कार्य) मनुष्य को स्वर्गप्रदान करने वाला है, उसी से सुदुर्लभ निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त होता है। अतः धर्म से बढ़कर और सुकृति (नेकी) देहधारियों के लिये नहीं है, और उसे छोड़ देने से या उसे भुला देने से बढ़कर दुष्कृति (बुराई) और कोई नहीं।" ___ महापुराण में भी पुण्य से प्राप्त होने वाले महालाभ का वर्णन करते हुए कहा है"पुण्य के बिना चक्रवर्ती के समान अनुपम रूप, सम्पदा (वैभव), अभेद्य शरीर का बन्धन (संहनन), अतिशय उत्कृष्ट निधि, रनों की ऋद्धि, हाथी-घोड़े आदि का परिवार तथा अन्तःपुर का वैभव, द्वीप-समुद्रों की विजय, भोगोपभोग, तथा सभी के द्वारा आज्ञाकारिता, ऐश्वर्य आदि सब कैसे प्राप्त हो सकते हैं ?"३ १. (क) शुभाशुमे पुण्य-पापे सुख-दुःखे च षत्रयम्। हितमाद्यं अनुष्ठेयं शेष त्रयमथाहितम्।।२३९॥ ... (ख) तत्राऽप्याद्यं परित्याज्यं, शेषौ न स्तः स्वतः स्वयम्। ... शुभं च शुद्ध त्यक्त्वाऽन्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥२४०।-आत्मानुशासन २३९, २४० ९. स देव-गंधव्व मणुस्स-पूइए, चइत्तु देहं मलं पंक पुव्वयं। सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिड्ढिए॥ -उत्तराध्ययन. अ. १ गा. ४८ ३. (क) धर्मात् साधुतरः कोऽन्यो यतो विन्दति मानवाः। पुण्यं स्वर्गप्रदं नित्यं निर्वाणं च सुदुर्लभम्। धर्मान्त्रास्त्यपरा काचित् सुकृतिदेहधारिणाम्। तत्त्यागानपरा काचित् दुष्कृतिदेहभागिनाम्॥ -कुरलकाव्य ४/१-२ (ख) पुण्याद् बिना कुतस्तादृगूपसम्पदनीदृशी? पुण्याद् बिना कुतस्तादृग-अभेद्य-गात्र-बन्धनश्च ||१४१ पुण्याद् बिना कुतस्तादृङ् निधिरलर्द्धिरुजिता। पुण्याद् बिना कुतस्तादृग इभाश्वादि-परिच्छदः?" -महापुराण ३७/१९७ से १९९ ता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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