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________________ ६८० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) .. पुण्यप्राप्ति का सरल उपाय बताते हुए आचार्य जिनसेन कहते हैं-"जिनेन्द्र भगवान् की अर्चा-भक्ति से प्राप्त होने वाला पुण्य प्रथम है। सुपात्र को दान देने से उत्पन्न पुण्य दूसरा है। तीसरा पुण्य है-व्रतों के पालन से प्राप्त होने वाला। चौथा पुण्य उपवास आदि तप करने से प्राप्त होता है। इस प्रकार पुण्यार्थी पुरुष को जिन-भक्ति, दान, व्रत, और उपवासादि तप के द्वारा पुण्य का उपार्जन करना चाहिए।" __आगे जिनसेनाचार्य कहते हैं-"पुण्य से सर्वविजयिनी चक्रवर्ती की लक्ष्मी प्राप्त होती है। पुण्य से इन्द्र की दिव्यश्री प्राप्त होती है। पुण्य से ही तीर्थंकर की लक्ष्मी प्राप्त होती है। उसी पुण्य से परमकल्याण रूप मोक्षलक्ष्मी प्राप्त होती है। इस प्रकार पुण्य से ही यह जीव चार प्रकार की लक्ष्मी प्राप्त कर लेता है। अतः सुधीजनो ! तुम लोग भी पूज्य : जिनेन्द्रोक्त आगमों के अनुसार पुण्य का उपार्जन करो।" . सर्वमान्य पूज्य का माहात्म्य पद्मनन्दि पंचविंशतिका में भी पुण्य का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है-"पुण्य के प्रभाव से अंधा प्राणी भी निर्मल नेत्रों का धारक हो जाता है। वृद्ध भी लावण्ययुक्त हो जाता है, निर्बल भी सिंह-सम बलिष्ठ हो जाता है। विकृत शरीर वाला भी कामदेव-सा सुन्दर हो जाता है। अन्य जो भी प्रशंसनीय एवं दुर्लभ पदार्थ माने जाते हैं, वे सब पुण्योदय से प्राप्त हो जाते हैं।" इसी ग्रन्ध में आगे कहा गया है-“इस संसार में समस्त दुःखदायक आपदाओं का निवारक तथा प्राणियों का उद्धारक धर्म (पुण्य) रूपी सुहृद् के सिवाय और कोई नहीं है। इसलिए हे विद्वज्जनो ! आप अपनी गति-मति धर्म (पुण्यकार्य) में लगाइए।" १. (क) पुण्यं जिनेन्द्र-परिपूजन-साध्यमाद्यं, पुण्यं सुपात्र-गत-दान-समुत्थमन्यत्। पुण्यं व्रताचरणादुपवासयोगात्, पुण्यार्थिनामितिचतुष्टमर्जनीयम्॥-महापुराण २८/२३९ (ख) पुण्याच्चक्रधरश्रियं विजयिनीमैन्द्रीं च दिव्यश्रियं । पुण्यातीर्थकर श्रियं च परमां निःश्रेयसीं चाश्नुते। पुण्याद्दिव्य सुभृच्छ्रियां चतसृणामाविर्भवेद् भाजनम्। तस्मात् पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याग्जिनेन्द्रागमात्॥ ___ -महापुराण २८/२१९,३०/१२९ (ग) “कोप्यन्धोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा ग्रस्तोऽपि लावण्यवान्। निःप्राणोऽपि हरिर्विरूप तनुरप्याद्युस्यते मन्मथः। उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरामालिंग्यते वै श्रिया॥ पुण्यादन्यऽपि प्रशस्तमखिलं जायेत महहुर्घटम्॥" -पद्मनन्दि-पंचविंशतिका १/१८९ (घ) वही, श्लोक १८८ (ङ) सत्कृत्यं सर्वदा कार्य यदुदर्के सुखावहम्। पूर्णशक्तिं समाधाय, महोत्साहेन धीमता॥ -कुरलकाव्य ४/३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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