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________________ ६७८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६). जाती है, इसी तरह पाप के नष्ट होने के साथ ही, पुण्य भी अपना फल देकर कर्मसन्तति को आगे बढ़ाये बिना निश्चित ही आत्मा से पृथक् हो जाता है।' पूर्वोपार्जित पुण्य सभी प्रकार की अनुकूल परिस्थितियों , संयोगों और शुभ भावों को उपस्थित करता है . जैनदर्शन के अनुसार पुण्यकर्म, वे शुभ पुद्गलों के परमाणु हैं, जो जीवन की शुभवृत्ति-प्रवृत्तियों एवं शुभ परिणामों तथा शुभक्रियाओं के कारण आकृष्ट होकर जीव के आत्मप्रदेशों के साथ श्लिष्ट हो जाते-बंध जाते हैं और अपने विपाक (फलप्रदान) के अवसर पर जीव को शुभ अध्यवसायों, शुभं परिणामों एवं सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं। साथ ही पुण्य शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक एवं भौतिक अनुकूलताओं और अनुकूल परिस्थितियों के संयोग उपस्थित कर देते हैं। आत्मा की शुभ भावनाएँ, शुभ मनोवृत्तियाँ, तथा सत्क्रियाएँ भी पुण्य कहलाती हैं, जो स्वतः शुभ पुद्गल (कर्म) परमाणुओं को आकर्षित करती हैं। दूसरी ओर, शुभवृत्तियों तथा सत्कार्यों की ओर प्रेरित करने वाले वे शुभ (पुण्य) के कर्म-पुद्गल-परमाणु अपने प्रभाव से स्वास्थ्य, सुखोपभोग-साधन, सम्पत्ति, सम्यक्श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान, संयम एवं संवर आदि के अवसर उपस्थित कर देते हैं। अशुभ से सीधे शुद्ध की प्राप्ति नहीं, शुभ के त्याग से ही शुद्ध की प्राप्ति संभव ___जैनकर्मविज्ञान के अनुसार अशुभ से सीधे शुद्ध की प्राप्ति नहीं होती, अपितु अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की प्राप्ति होती है। इस दृष्टि से भी पुण्य शुद्ध की प्राप्ति में सहायक होने से शुद्ध की प्राप्ति न होने तक उपादेय मानना युक्ति, सिद्धान्त और तर्क से संगत है। इसी तथ्य को 'आत्मानुशासन' में गुणभद्राचार्य ने प्रकट किया है-"ज्ञानी पुरुष पुण्य तथा पाप का कारण जीव के परिणाम को ही कहते हैं। अतएव निर्मल परिणामों के द्वारा पूर्वसंचित पाप का विनाश एवं आगामी पुण्य का संचय करना चाहिए। शुभ का त्याग होने पर पुण्य और इन्द्रियजनित सुख स्वयं दूर हो जायेंगे इसी प्रकार शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप एवं सुखे-दुःख ये तीन युगल (छह) तथ्य हैं, इनमें से आद्य शुभ, पुण्य और सुख तीन (कथंचित्) उपादेय या अनुष्ठेय हैं; तथा शेष १. (क) मलं पात्रोपसंसृष्टमपनीय यथाहि मृत्। स्वयं विलयतां याति, तथा पापापहं शुभम्। (ख) अमरभारती १/७८ पृ.८४ । २. जैनकर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययनः (डॉ. सागरमल जैन) से पृ. ३८ ३. परिणाममेवकारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञन। तस्मात्पापापचयः पुण्यापचयश्च सुविधेयः।।" -आत्मानुशासन-२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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