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________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय? ६७७ आचार्य अभयदेव का कहना है “पुण्य वह है, जो आत्मा को पवित्र करता है, अथवा जिससे आत्मा पवित्रता की ओर बढ़ता है।" आचार्य की दृष्टि में पुण्य मोक्षप्राप्ति में सहायक होता है। आध्यात्मिक साधना में भी पुण्य साधक होता है।" "पुण्य मोक्ष यात्रियों की नौका के लिए अनुकूल वायु है, जो नौका को संसार-समुद्र से शीघ्र पार करा देती है।" इसका आशय यह है कि पुण्य आत्मा के लिए संसार-समुद्र को पार करने में जलयान के समान उपयोगी है। जैसे-समुद्र की छाती पर तैरते समय नौका उपयोगी एवं उपादेय होती है, परन्तु समुद्र का तट आने पर नौका को छोड़ दिया जाता है, उसे त्यागना आवश्यक हो जाता है, उसी प्रकार संसार. समुद्र को पार करते समय पुण्यरूपी नौका उपयोगी और उपादेय होती है, किन्तु संसार समुद्र के किनारे पहुँच जाने पर पुण्यरूपी नौका का आश्रय छोड़ देना आवश्यक हो जाता है। __ इस प्रकार पुण्य मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में सहायक एवं उपादेय होता है, किन्तु संसार समुद्र पार कर लेने पर मोक्ष में प्रवेश के समय पुण्य को हेय समझकर छोड़ देना होता है। अयोगी केवली गुणस्थान की भूमिका में उसकी उपयोगिता नहीं रहती, वह स्वतः आत्मा से पृथक् हो जाता है।' . . पुण्य स्वयमेव पापमल को नष्ट करने के साथ आत्मा से पृथक् हो जाता है इसीलिए कर्मविज्ञान मनीषियों ने कहा कि पुण्य आध्यात्मिक जीवन-जीवी साधक की आत्मा का अंगरक्षक सेवक है, जो मोक्षप्राप्ति के पूर्व तक यानी अयोगी केवली नामक चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त होने के पूर्व तक-स्वामिभक्त सेवक की तरह उसका पूर्ण सहयोग करता है और अनुकूल साधन जुटाता है। . अमर भारती में इस तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए एक श्लोक द्वारा कहा गया *-"जैसे मिट्टी बर्तन पर लगे हुए मैल को साफ करके मैल के साथ ही स्वयं दूर हो जाती है, वैसे ही पुण्य पापकर्म का निराकरण (हटा) कर स्वयं दूर हो (हट) जाता है।" पुण्य को साबुन की उपमा दी जा सकती है। जैसे साबुन वस्त्र का मैल धोकर, स्वयं मैल के साथ ही अलग हो जाता है, वैसे ही पुण्य भी पापमल को साफ करके स्वयं (पापमल) के साथ ही हट जाता है। जिस प्रकार एरण्ड बीज या केस्टर ऑइल आदि वक दवा मल के रहने तक उदर में रहती है, मल निकलने पर वह स्वयं भी निकल 1. (क) योगशास्त्र ४/१०७ (ख) समयसार नाटक उत्थानिका २८ (ग) स्थानांग सूत्र टीका १/११-१२ (घ) जैनधर्म पृ. ८४ (छ) “जैनकर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से पृ. ३८ जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित-पुण्य-पाप की अवधारणा लेख से पृ. १५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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