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६७६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) पुण्य और पाप में भिन्नता : व्यवहार दृष्टि से ___तत्त्वार्थसार में अमृतचन्द्र सूरि ने इन दोनों की भिन्नता प्रदर्शित करते हुए कहा है-“हेतु (साधन) और कार्य (फल) की विशेषता (भिन्नता) से पुण्य और पाप में भिन्नता है। पुण्य और पाप के कारण पृथक्-पृथक् हैं। पुण्य का कारण शुभ परिणाम है और पाप का कारण है-अशुभ-परिणाम। पुण्य का फल इन्द्रियजनित वैषयिक सुख की उपलब्धि है, जबकि पाप का फल दुःख की प्राप्ति है।" .. 'मोक्षपाहुड' में कहा गया है-जिस प्रकार छाया और धूप (आतप) में स्थित पथिकों के प्रतिपालक कारणों में बहुत अन्तर है। व्रत, तप आदिरूप पुण्य श्रेष्ठ है, क्योंकि इससे स्वर्गादि, उत्तम गति की प्राप्ति होती है, इसके विपरीत अव्रत, अतप आदि रूप पाप श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है।
. इसी सन्दर्भ में, भगवती आराधना में भी कहा गया है-“जब व्रतादिसहित भी मिथ्यादृष्टि संसार में परिभ्रमण करता है, तब फिर व्रतादि से रहित (अशुभोपयोग युक्त) होकर तो दीर्घ-संसारी क्यों न होगा?"२ . अतः पुण्य हेय ही नहीं, उपादेय भी है : क्यों और कैसे?
___ अतः पुण्य आध्यात्मिक जीवन की उच्चभूमिका में हेय होते हुए भी सामाजिक, नैतिक, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक जीवन में, इतना ही नहीं, धार्मिक जीवन में भी कथंचित उपादेय और अशुभोपयोग निरोधक भी है। तन, मन, वचन में संतुलन बनाना, जीवन के संचालन में बाह्य और आभ्यन्तर दृष्टि से समत्व स्थापित करना पुण्य का कार्य है। __- आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में-"पुण्य (अशुभ) कर्मों का लाघव है और शुभ कर्मो का उदय है।" अर्थात्-वे पुण्य को अशुभ कर्मों के हास और शुभकर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त बाह्य विकास का, प्रशस्त राग का घोतक मानते हैं।
कविवर बनारसीदास जी समयसार नाटक में पुण्य की व्याख्या करते हुए कहते हैं-पुण्य वह है, जिससे भावों की विशुद्धि-पवित्रता हो, आत्मा आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़े, इस संसार में भौतिक, शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक समृद्धि एवं सुखवृद्धि हो।
१. हेतु-कार्यविशेषाम्यां विशेषः पुण्यपापयोः।
हेतु शुभाशुभौ भावौ, कार्ये चैव सुखासुखे। तत्त्वार्थसार-(आश्रव तत्त्व) गा. १०३ २. (क) वर वयतवेहि सग्गो वा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहि। छायातववटिमाणं पडिवालंताणं गुरुभेयो॥"
-मोक्षपाहुड २५ (ख) जस्स पुण मिच्छादिद्विस्स णत्यि सीलं वदं गुणो चावि।
सो मरणे अप्पाणं कह ण कुणइ दीहसंसारं? -भगवती आराधना मू. ६१
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