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________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? स्थान को प्राप्त नहीं कर सकता। उसी प्रकार भली-भाँति व्रत तप आदि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि कदापि मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता । ' इसी सन्दर्भ में परमात्म प्रकाश में कहा गया है- "जो जीव सम्यग्दर्शन के सम्मुख हैं, वे अनन्त (आत्म) सुख को प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत जो जीव सम्यक्त्व-रहित हैं, वे पुण्य करते हुए भी, पुण्य के फल से अल्पसुख पाकर संसार में अनन्त दुःख भोगते हैं।'' इसलिए हे जीव ! अपने सम्यग्दर्शन के सम्मुख होकर मरना भी अच्छा है, लेकिन सम्यग्दर्शन से विमुख होकर पुण्य करना अच्छा नहीं है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि के वे अहिंसादि गुण (या व्रत) पापानुबन्धी पुण्य होने से स्वल्प इन्द्रिय सुख तो प्राप्त करा देते हैं परन्तु जीव को महारम्भ और महापरिग्रह में आसक्त कराकर मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तीसरे भव में नरक में ले जाते हैं। निदान (भोग वांछा आदि का इहलोक - परलोक सम्बन्धी संकल्प - नियाणा)-बन्ध से उपार्जित पुण्य से आगामी जन्मों (भवों ) ( भवान्तर) में राज्यादि विभूति को प्राप्त करके मिथ्यादृष्टि जीव (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की तरह) भोगों का त्याग करने में समर्थ नहीं होता। अर्थात्-वह (पुण्य-प्राप्त) भोग-सुखों में आसक्त हो जाता है। फलतः (पूर्वनिदानकृत) पुण्य से वह रावण आदि की भांति नरक आदि के दुःखों को प्राप्त करता है। इस प्रकार शुभकर्म (भाव) भी कथंचित् पापबन्ध के कारण हो जाते हैं। इसलिए ज्ञानीजन पाप की तरह पुण्य को भी हेय समझते हैं। " ६६७ 'इष्टोपदेश' में कहा गया है- "जो मनुष्य किसी भार को शीघ्र ही स्वेच्छा से दो कोस ले जा सकता है, वह उसी भार को आधा कोस ले जाने में कैसे खिन्न हो सकता है ? उसी प्रकार जिसे (भाव) मोक्षसुख प्राप्त करा सकता है, उसके लिए स्वर्ग सुख प्राप्त कराना कौन-सा दूर है, यानी कौन बड़ी बात है ? जो व्यक्ति कषाययुक्त होकर विषयतृष्णावश पुण्य की अभिलाषा करता है, उससे विशुद्धि और विशुद्धिमूलक पुण्य दूर है। पुण्य की इच्छा करने से पुण्य नहीं होता, बल्कि निरीह (पुण्येच्छा रहित ) व्यक्ति कोही उसकी प्राप्ति होती है। ऐसा समझकर हे यतीश्वरो ! पुण्य के प्रति आदरभाव या आदेयभाव मत करो। " १. भगवती आराधना । (मू.) ५७ से ६० तक । २. परमात्म प्रकाश (मू.) २/५९, २/५८ ३. भगवती आराधना (विजयोदया टीका) ५८ / १८५/९ ४. (क) परमात्म प्रकाश (टी.) २/५७/१७९/८ (ख) राजवार्तिक ६/३/७ ५. इष्टोपदेश ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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