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________________ ६६८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) पुण्य का निषेध करने का प्रयोजन पुण्य का निषेध करने या त्याज्य समझने का प्रयोजन या कारण यह नहीं है कि पूर्वकृत पुण्य राशि के फलस्वरूप प्राप्त हुए तन, मन, वचन, इन्द्रिय आदि सामग्री को फेंक दें, किन्तु पुण्य-प्राप्ति की इच्छा से कोई भी प्रवृत्ति न करे; क्योंकि प्रवचनसार के अनुसार- 'तात्पर्य यह है कि ये शुभ-अशुभ समस्त परिणाम उपाधि सहित होने से बन्ध के हेतु हैं, बन्धनमुक्ति या कर्मक्षय के हेतु नहीं। ऐसा जानकर बन्धरूप समस्त शुभाशुभ: रागद्वेष को नष्ट करने के लिए समस्त रागादि उपाधि से रहित सहजानन्द लक्षणरूप आत्मसुखामृत स्वभावी निज आत्म द्रव्य में भावना करनी चाहिए।"" शुभोपयोगरूप पुण्य कहाँ हेय, कहाँ उपादेय ? : सम्यक् विवेचना जो उच्च भूमिकारूढ़ है अथवा उच्च भूमिका प्राप्त करना चाहता है, ऐसे साधक की अपेक्षा से ‘प्रवचनसार' में कहा गया है- “धर्म से परिणतस्वरूप आत्मा जब शुद्धोपयोगरूप परिणति को धारण करती है, तब निर्वाण (मोक्ष) सुख को प्राप्त करती है। और जब धर्म से परिणतस्वरूप आत्मा शुभोपयोग से युक्त होता है, तब वह स्वर्ग-सुख को प्राप्त करता है।" इस गाथा का आशय स्पष्ट करते हुए जयसेनाचार्य ने तात्पर्य वृत्ति में कहा- गाथा में प्रयुक्त 'शुद्ध-सम्प्रयोग' के द्वारा वाच्य शुद्धोपयोगस्वरूप वीतरागचारित्र है, उससे निर्वाण प्राप्त होता है। अर्थात् एकान्त शुद्धोपयोगरूप वीतराग चारित्र आत्म-समाधि में अथवा शुक्लध्यान में स्थित परमध्यानी मुनिराज के ही होता है। सराग संयमी अवस्था में मुनिराज के एकान्त शुद्धोपयोग नहीं होता । अतः गृहस्थावस्था में श्रावकव्रती के तो एकान्त शुद्धोपयोग की कल्पना भी नहीं की जा सकती। तात्पर्य यह है कि जब सराग संयमी महाव्रती भावलिंगी मुनिवर में भी एकान्ततः शुद्धोपयोग का अभाव है, तब असंयमी अथवा देशसंयमी (श्रावकव्रती ) श्रावक के एकान्ततः शुद्धोपयोग का अभाव स्वतः सिद्ध होता है। निर्विकल्प समाधि - (अभेद रत्नत्रयरूप परिणति) रूप शुद्धोपयोग का सामर्थ्य न होने पर जब वह साधक शुभोपयोग (भेद-रत्नत्रयरूप परिणति) रूप सराग चारित्र को धारण करता है, उस समय वह अपूर्व, अनाकुलतास्वरूप परमार्थ (आत्मिक) सुख से विपरीत आकुलता के उत्पादक स्वर्गसुख को प्राप्त करता है। इसके अनन्तर परम समाधि शुद्धोपयोग की सामग्री का लाभ होने पर मोक्ष को भी प्राप्त करता है। इसी दृष्टि से अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं- 'शुद्धोपयोग उपादेयः' (शुद्धोपयोग उपादेय है) क्योंकि उससे ही निर्वाण-सुख प्राप्त हो सकता है। सविकल्प अवस्थारूप भेद १. (क) प्रवचनसार (ता.वृ.) १८०/२४३/१६ Jain Education Internatio (त) पंचास्तिकाय (ता. वृ.) १२८-१३०/१९५ Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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