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________________ ६६६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) परम्परा से पापबन्ध का कारणभूत पुण्य अच्छा नहीं मोक्षमार्ग- प्रकाश में कहा गया है- "जो जीव शुभोपयोग (पुण्य) को मोक्ष का कारण मानकर उसे उपादेय मानते हैं, शुद्धोपयोग को नहीं पहचानते, उनके लिए शुभ और अशुभ दोनों उपयोग, अशुद्धता एवं बन्धकारण की अपेक्षा से समान बताए गए हैं।” इससे भी आगे बढ़कर 'परमात्म प्रकाश' में कहा है- ज्ञानी जन कहते हैं "हे. जीव ! पाप का उदय जीव को दुःख देकर शीघ्र ही (मुमुक्षु साधक की) बुद्धि को मोक्षमयी... (कर्ममुक्ति पाने योग्य) कर देता है। वह पाप भी (सठप्रेरक होने से ) बहुत अच्छे हैं। किन्तु वे पुण्य अच्छे नहीं, जो जीव को राज्यादि (समृद्धि) दिला कर शीघ्र ही नरकादि के दुःखों को उत्पन्न कर देते हैं।" इसी दृष्टि से 'योगसार' में कहा गया- “पाप को पाप तो सभी जानते- मानते हैं, किन्तु पुण्य को भी (पूर्वोक्त दृष्टि से पापप्रेरक होने से ) पाप कहने वाला विरला ही कोई पण्डित है । " वस्तुतः पुण्य से प्राप्त भोग एक तरह से पाप के मित्र बन जाते हैं।' मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यन्त अनिष्टकर हैं : क्यों और कैसे?. जिसमें मिथ्यात्व से युक्त पुण्य तो और भी अनिष्टकर है। भगवती आराधना में कहा गया है-अहिंसादि पांच व्रत आत्मा के गुण हैं, किन्तु मृत्यु के समय यदि वे मिथ्यात्व से संयुक्त हो जाएँ तो कड़वी तुम्बी में रखे हुए दूध के समान व्यर्थ हो जाते हैं। जिस प्रकार विष मिल जाने पर गुणकारी औषध भी दोषयुक्त हो जाती है, इसी प्रकार उपर्युक्त गुण ( व्रतनियमादि) भी मिथ्यात्वयुक्त हो जाने पर दोषयुक्त हो जाते हैं। जिस प्रकार एक दिन में सौ योजन चलने वाला व्यक्ति यदि विपरीत दिशा में चलता रहे तो कदापि अपने इष्ट 9. (च) पुण्णेण होइ विहवो, विहवेण मओ मएण मइमोहो। मइमोहेण य पावं, बम्हा पुणो वि वज्जेओ ।' (छ) समयसार मू. २१० (ज) कार्तिकयानुप्रेक्षा (मू.) ४०९, ४१२ (झ) सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं । त्यजतु परमतत्त्वाभ्यास- निष्णातचित्तः । (क) मोक्षमार्ग प्रकाश (पं. जयचन्दजी) (ख) वरं जिय पावइँ संदरहँ णाणिय ताइँ भणति । हँ दुक्ख जाणिव सिवमइ जाईं कुणति ॥ (ग) “जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु मुणे | विपावि, सो बुह को वि हवेइ ॥' Jain Education International ..भवविमुक्त्यै.....। -तिलोयपण्णत्ति ९/५२ - नियमसार ता. वृ. ४१/क. ५९ For Personal & Private Use Only - परमात्म प्रकाश ५६ - योगसार (यो.) ७१ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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