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________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? (बाह्य) व्यक्ति पुण्य मोक्ष का हेतु नहीं हैं, अपितु संसार गमन का हेतु है", यह जानते हुए भी अज्ञान एवं मोहवश पुण्य को (मोक्ष प्राप्ति का हेतु मानकर ) चाहते हैं। वस्तुतः जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी आत्मा को (भलीभाँति ) नहीं जानता, हे जीव ! वही पुण्य और पाप दोनों को मोक्ष के कारण कहकर उन्हें करता रहता है।" " इष्ट वस्तुओं के संयोग में राग (मोह, ममता या आसक्ति) करने वाला साधु (या सज्जन पुरुष) वस्तुतः अज्ञानी है। ज्ञानी पुरुष इसके विपरीत शुभ व अशुभ कर्म (पुण्य-पाप) के फलस्वरूप प्राप्त इष्ट या अनिष्ट संयोगों में रागद्वेष नहीं करता, अर्थात् वह पुण्य-पाप के फलस्वरूप प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में हर्ष शोक नहीं करता, वह संवरनिर्जरारूप समत्व धर्म में स्थिर रहता है। वह जानता है कि पुण्य से वैभव, वैभव से मद, मद से मतिमोह (मूढ़ता), और मतिमोह से पाप होता है। इसलिए (पाप में प्रवृत्त कराने के हेतुभूत ऐसे) पुण्य को भी त्याज्य समझना चाहिए। ऐसा पुण्य हमें प्राप्त न हो, जो परिग्रह से अथवा परिग्रह की इच्छा से रहित ज्ञानी को भी वैभवादि के परिग्रह में डालता है। इसी कारण वह पुण्य को नहीं चाहता, वह पुण्य (लौकिक धर्म) का परिग्रही नहीं, केवल उसका ज्ञाता-द्रष्टा है। ६६५ यद्यपि (सरागी छद्मस्थ के लिए) क्षमादि दशविध धर्म पापकर्म का नाश और पुण्यकर्म का बन्ध करने वाले कहे जाते हैं, परन्तु इन्हें भी पुण्य के लिए नहीं करना चाहिए। · निष्कर्ष यह है कि पुण्य के प्रति आदेय बुद्धि या आदरबुद्धि नहीं होनी चाहिए। नियमसार में तो स्पष्ट कहा है-“समग्र पुण्य भोगीजनों के भोग का मूल है। जिनका चित्त परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात है, उन मुनीश्वरों को संसार से मुक्त होने के लिए उन समग्र पुण्यों (शुभ कर्मों) का त्याग करना चाहिए। अर्थात् वे पुण्योपार्जन या पुण्यफल को मन से भी न चाहें। "" १. (क) “रत्तो बंधति कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो । पत्तो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥" . - समयसार मू. १५० “सामान्येन रक्तत्व निमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभय कर्माविशेषेन बन्धहेतुं साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति ।" -वही (आ.) १५० - द्रव्यसंग्रह टीका ३८/१५९/७ (ख) सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्य-पापद्वयमपि हेयम् । (ग) 'परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति । संसारगमणहेतुं वि मोक्खहेतुं अजाणंतो ॥" (घ) दंसण - गाण-चरित्तमउ जो गवि अप्पु मुणे । मोक्ख कारण भणिवि जिय सो पर ताई करेइ ॥ (ङ) 'सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू । सोतेहु अण्णाणी, गाणी एत्तो हु विवरीओ ॥' Jain Education International For Personal & Private Use Only - समयसार १५४ - परमात्मप्रकाश २/५४ - मोक्षपाहुड ५४ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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