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________________ ६६० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६). । नतिजानि। 'परमात्म प्रकाश में पुण्य और पाप दोनों को पारमार्थिक दृष्टि से एक बताते हुए कहा गया है-“बन्ध और मोक्ष का कारण अपना विभाव और स्वभाव-परिणाम है, ऐसा भेद जो नहीं जानता, वही मोहवश पुण्य और पाप इन दोनों को करता है।" समयसार में भी इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया-जीव के परिणाम शुभ हों या अशुभ, दोनों ही अज्ञानमय होने से एक हैं। तथा दोनों के कारण में अभेद होने से कर्म एक ही हैं। फिर शुभ और अशुभ पुद्गल-परिणाम केवल पुद्गलमय होने से एक हैं। अतः उनके स्वभाव में अभेद होने से दोनों एक हैं। तथा उनके अनुभव अथवा स्वाद में अभेद होने से दोनों एक हैं। यद्यपि शुभरूप (व्यवहार) मोक्ष मार्ग केवल जीवमय तथा अशुभरूप बन्ध मार्ग केवल पुद्गलमय होने से दोनों में अनेकत्व है, फिर भी (दोनों ही) कर्म केवल पुद्गलमय बन्धमार्ग के आश्रित हैं। अतः इन दोनों के आश्रय में अभेद होने से दोनों एक (समान) हैं। इसी की टीका में पं. जयचन्द्रजी ने कहा है- . "पुण्य-पाप दोऊ करम, बन्ध रूप दुहु मानि। शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, नमूंचरण हित जानि॥" तत्त्वदृष्टि से पुण्य और पाप दोनों ही बन्धकारक संसार हेतु होने से समान ___"वस्तुतः सर्वज्ञदेव ने सभी शुभाशुभ कर्मों को सामान्य रूप से बन्ध का कारण कहा है। अतएव उन्होंने समस्त कर्मों को ही निषिद्ध (त्याज्य) बताया है। एकमात्र ज्ञान को ही (कर्म) मोक्ष का कारण कहा है।" दूसरी बात यह है कि जैसे बेड़ी लोहे की हो या सोने की दोनों ही बन्धन में बांधती हैं। पाप लोहे की बेड़ी है तो पुण्य सोने की बेड़ी। अपने द्वारा किये गए शुभ (पुण्य) और १. (क) संसार-कारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषतः। न नाम निश्चये नास्ति विशेषः पुण्यः पापयोः। -तत्त्वार्थसार ४/१०४ (ख) असुह-सुह चिय कम्मं दुविहं तपि दब्वभावभेयगये। तं पिय पडुच्च मोह संसारो तेण जीवस॥ -नयचक्र पृ. २९९ (ग) कम्मबंधो हि णामसुहासुहपरिणामेहितो जायदे।' -धवला १२/४,२,८,३/२७९ (घ) तत्र पुण्य-पुद्गल-बन्धकारणत्वात् शुभपरिणामः पुण्यम्। पाप-पुद्गलबन्धकारणत्वादशुभपरिणामः पापम्॥ -प्र. सा. त.प्र. १८१ (छ) मोहो रागो दोसो चित्त प्रसादो य जस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो॥ -पंचास्तिकाय मू. १३१. (च) बंधह मोक्खहं हेउणिउ जो णवि जाणइ कोइ।। सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णुवि पाउ वि दोइ॥ (छ) समयसार (आत्मख्याति) १४५ (ज) समयसार टीका (पं. जयचन्द्र छावड़ा) -परमात्मप्रकाश २/५३ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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