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________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? ६६१ अशुभ (पाप) दोनों प्रकार के कर्म जीव को बंधन में बाँधने वाले हैं।” वस्तुतः पुण्य और पाप दोनों ही बन्धनकारक एवं जन्म-मरणरूप संसार में भटकाने वाले हैं। 'समयसार' में ही आगे कहा गया है कि “अशुभ कर्म (पाप) कुशील है, और शुभकर्म (पुण्य) सुशील है, ऐसा तुम ( व्यवहार दृष्टि से मोहवश ) जानते - मानते हो; किन्तु जो संसार में प्रवेश कराता है, वह (पुण्यकर्म) भला कैसे सुशील हो सकता है ?" इसीलिए कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्पष्टतः कहा गया- जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार (परिभ्रमण ) को चाहता है, क्योंकि पुण्य भी आखिर सुगति का कारण होने से संसार में ही रखने वाला है, मोक्ष तो पाप के समान पुण्य का भी क्षय होने पर होता है। निशीथचूर्णि में स्पष्ट कहा गया है - पुण्य भी परमार्थ दृष्टि से मोक्षप्राप्ति में • बाधक - विघातक है। 'पंचाध्यायी' (उ.) में भी स्पष्ट कहा गया- " निश्चयनय से शुभोपयोगरूप पुण्य संसार का कारण होने से इसे (आत्मा के लिए) शुभ कहा ही नहीं जा सकता । " प्रवचनसार एवं योगसार में भी कहा है- "तत्त्वदृष्टि से पुण्य और पाप में कोई भेद नहीं है, इस तथ्य को मोहाच्छादित तथा मन्दबुद्धिजन मानकर घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है, क्योंकि वह अविनाशी अव्याबाध एवं निराकुल (मोक्ष) सुख को न देखकर, सांसारिक (वैषयिक) सुख-दुःख के करणरूप विशेषता के कारण पुण्य और पाप में भेद (अन्तर) समझता है। १. (क) कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद् बन्धसघनमुशन्त्य विशेषात् । तेन सर्वमपि तव्प्रतिषिद्धं, ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ॥ (ख) सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीव सुहमसुहं वा कदं कम्पं ॥ "पुर्ण मोक्ख-गण- विग्घाय भवति ।” ३. (क) समयसार मू. १४६ ता. वृ. (ख) समयसार १४५ (ग) पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि । सुगई हे पुणावणेय निव्वाणं ॥ (घ) 'शुभोनाऽप्यशुभा बहाता ।' (ङ) "णहि मण्णदि जो एवं अस्थि विसेसोत्ति पुण्ण-पावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछन्नो ।” (च) सुख-दुःखविधानेन विशेषः पुण्य-पापयोः । नित्यं सौखमपश्यद्भिर्मन्यते मन्दबुद्धिभिः॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only - स. सा. आ. १५0 - समयसार मू. १४६ - निशीथचूर्णि ३३२९ - कार्तिकयानुप्रेक्षा ४१० - पंचाध्यायी (उ.) ७६३ -प्रवचनसार ७७. -योगसार अ. ४ / ३९ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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