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________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? ६५९ उस यात्री की दशा पुनः अशुभ कर्मों के संकट से ग्रस्त हो सकती है। उसके परिपार्श्व में रहने वाले रागद्वेष या कामक्रोधादि विषाक्त जन्तु उसे अपना शिकार बनाकर उसके पुण्यमय जीवन का सर्वनाश कर सकते हैं। संसार-वन सौन्दर्यासक्त पुण्यशाली यात्री को इस प्रमाद, आलस्य और अजागरूकता के कारण पापकर्मरूपी हिंस्र जीवों का आतंक, भय, चिन्ता, मनस्ताप सदैव बना रहता है। इस कारण वह पुण्यशाली भी पापकर्मों का संग्रह कर लेता है। फलतः वह पुनः पुनः जन्म-मरणरूप अनन्त-संसार में परिभ्रमण करता रहता है। संसार-महारण्य के यात्री के समक्ष भी पुण्य-पथ और पाप-पथ निष्कर्ष यह है कि संसाररूपी महारण्य के यात्री के समक्ष पापमय और पुण्यमय दोनों प्रकार के पथ अपने-अपने रूप में आते रहते हैं। पापमय पथ तो अशुभ, कण्टकाकीर्ण और अनेक भयस्थलों से परिपूर्ण है। उस पर यात्रा करना खतरे से खाली नहीं है। अतः सामान्य रूप से व्यवहार धर्म, लौकिक धर्म या सामाजिक धर्म को ही अधिकांश विवेकी और धार्मिक लोग अपनाते हैं। वही शास्त्रीय भाषा में पुण्यमय पथ है। • पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों एक : क्यों और कैसे ? प्रश्न होता है- 'पाप जैसे अशुभ होने से हेय माना जाता है, वैसे क्या पुण्य शुभ होने के बावजूद हेय है ? क्या पुण्य और पाप इन दोनों में अन्तर नहीं है ?" 'तत्त्वार्थसार' में कहा गया है कि “निश्चय दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों ही कर्म हैं और दोनों ही संसार के कारण हैं। इसलिए पुण्य और पाप में कोई विशेषता नहीं है।" नयचक्र (वृहद्0) में कहा गया है - "कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ और अशुभ | ये दोनों द्रव्य और भाव के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। उन दोनों को लेकर मोह होता है और मोह से जीव का संसार होता है।" धवला के अनुसार- "कर्म का बन्ध शुभ और अशुभ परिणामों से होता है।" प्रवचनसार के अनुसार- 'पुण्य रूप पुद्गल कर्म के बन्ध का कारण होने से शुभ परिणाम पुण्य हैं, और पापरूप पुद्गल-कर्म के बन्ध का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप हैं।" पारमार्थिक दृष्टि से दोनों ही बन्ध के कारण होने से इन दोनों में भेद नहीं किया जा सकता। 'पंचास्तिकाय' में भी इसी का अनुसरण करते हुए कहा गया है - "जिसके भाव में मोह, राग, द्वेष अथवा चित्त में प्रसन्नता, उसे शुभ या अशुभ परिणाम होते हैं। अर्थात्वहाँ प्रशस्तराग व चित्त-प्रसाद से शुभ परिणाम और अप्रशस्त राग द्वेष और मिथ्याभाव से अशुभ परिणाम होते हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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