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________________ ६५८ कर्म - विज्ञान : भाग - २ : कर्मों का आनव और संवर (६) संसार महारण्य के यात्री के समक्ष भी पुण्य और पाप के दृश्य ठीक यही बात संसाररूपी महारण्य को पार करके अपने गन्तव्य स्थान (अन्तिम लक्ष्य) - मोक्षनगर में पहुँचना चाहने वाले मुमुक्षु साधक महायात्री के लिये कही जा सकती है। इस संसार-महारण्य में भी हरे-भरे पेड़-पौधों के समान सुखद सुन्दर परिवार या संघ है। कहीं लताओं और झाड़ियों के समान रमणीय रमणियाँ, सुन्दर स्वस्थ पुरुष, सलौने बालक-बालिकाओं का समूह है। कहीं ठूंठ के समान रूखे-सूखे उदासीन अहंकारी मानव मिलते हैं। संसाररूपी महारण्य में चार गतियों के समान चार उच्चावच घाटियाँ हैं।' कहीं-कहीं गन्तव्य स्थान की ओर ले जाने वाली निर्जरा (कर्म-मोक्ष) की सकड़ी पगडंडी है । किन्तु कहीं-कहीं क्रोध, अहंकार, भय, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, क्षोभ, द्रोह, शोक, काम, आदि दोष विकाररूपी हिंम्न जन्तुओं के डेरे हैं। कहीं चिन्ता, उद्विग्नता और बेचैनी की गहरी खाई एवं खोह या बीहड़ है। कहीं-कहीं उसे मर्मस्पर्शी, कलह, निन्दा और अपशब्द भरे कंटीले तीखे अशुभ वचनरूपी वृक्ष भी मिलते हैं। कहीं-कहीं मद तथा दम्भरूपी सर्प के भयंकर विषैले पापस्थान भी मिलते हैं। कहीं पापकर्मरूपी वृक्षों से उसके गन्तव्य स्थान की ओर जाने वाला रास्ता घोर मोह और अज्ञान के कारण अन्धकारमय बन जाता है। सहसा उसकी आँखों के आगे दर्शनमोह और चारित्रमोह का तथा ज्ञानावरण का अंधेरा छा जाता है। वह भी यथार्थ संवर निर्जरामय मोक्ष महापथ को छोड़कर अव्याबाध सुखस्थानरूप मोक्ष स्थान में शीघ्र पहुँचने की सफलता की भ्रान्ति में हिंसादि पापों की पगडंडी पकड़ लेता है, जो उसे संसाररूप महारण्य में भटका देती है, जहाँ उसे कोई सद्बोध देने वाला पथ-प्रदर्शक या हमराही नहीं मिलता। फलतः वह उसी संसार के भयंकर वन में इधर-उधर भटकता हुआ पुनः पुनः काम, क्रोध, लोभ, तृष्णा, मद आदि पापकर्म प्रेरक हिंस्र पशुओं का शिकार हो जाता है। फलतः विषय-वासना रूपी भूख और पर-पदार्थ पिपासारूपी प्यास से पीड़ित होकर अपनी आत्मिक सुख-शान्तिमय जिन्दगी से भी हाथ धो बैठता है । किन्तु पूर्वकृत पुण्य के फलस्वरूप उस महायात्री को कहीं-कहीं संसार वन में रमणीय एवं सुखद पुण्य कर्मतरुओं पर लदे हुए पुण्यफल के दर्शन होते हैं। सभी प्रकार की वैषयिक सुखभोग सामग्री की नैसर्गिक छटा और पुण्य फल परिपूर्ण पुष्प पादपों की छटा प्राप्त होती है। उस समय यदि वह यात्री थोड़ी देर वहाँ विश्राम लेने और तरोताजा होकर अपने गन्तव्य स्थान की ओर आगे बढ़ने के बदले उस स्थान की रमणीयता पर मुग्ध और आसक्त होकर वहीं आसन जमा ले, उस स्थान को छोड़े नहीं, तो संसार-वन सौन्दर्यासक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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