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________________ · पुण्य और पाप : आम्रव के रूप में ६४७ यहाँ तो इतना ही बताना अभीष्ट है कि योगरूप आसव के शुभाशुभत्व का निर्णय केवल प्रवृत्ति से ही नहीं होता, अपित तीव्र-मन्दादि परिणाम भेद से, शक्तिविशेष से तथा पूर्वोक्त विभिन्न अधिकरणों के आधार पर होता है।' पुण्य-पाप : आम्रव भी और बन्ध भी ____ उत्तराध्ययन सूत्र में नवतत्त्वों (पदार्थों) का निरूपण किया गया है, उसमें पुण्य और पाप को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में बताया गया है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में तथा दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में पुण्य-पाप को छोड़कर सात तत्त्वों का ही उल्लेख किया गया है-जीव, अजीव, आसव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष। ___ किन्तु यह मतभेद विशेष महत्वपूर्ण नहीं है। जो परम्परा पुण्य-पाप को स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानती है, वह इन्हें आसव के अन्तर्गत समाविष्ट कर लेती है। अगर सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाए तो पुण्य और पाप केवल शुभाशुभ आम्नव रूप ही नहीं है, अपितु शुभाशुभ कर्मबन्ध के रूप में तथा शुभाशुभ कर्मफल के रूप में भी इनका स्वीकार किया गया है। अतः आसव के दो विभाग (शुभानव, अशुभानव) करने मात्र से उद्देश्य पूरा नहीं होता, क्योंकि आसव की तरह बन्ध और विपाक के भी शुभ और अशुभ के भेद से दो-दो भेद करने होंगे। इस वर्गीकरण और भेदाभेद की कठिनाई से बचने के लिए आगमों में पुण्य-पाप को दो स्वतंत्र तत्त्वों के रूप में प्रतिपादित करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। - आचार्यों ने पुण्य-पाप द्रव्य और भावरूप से दो-दो प्रकार के बताए हैं-(१) शुभ कर्म पुद्गल द्रव्य-पुण्य तथा (२) अशुभ कर्म पुद्गल द्रव्य-पाप। इसलिए द्रव्यरूप पुण्य तथा पाप बन्धतत्त्व में अन्तर्भूत हैं, क्योंकि आत्मा से सम्बद्ध कर्म पुद्गल या आत्मा और कर्म पुद्गल का सम्बन्ध विशेष ही द्रव्यबन्ध तत्त्व है। द्रव्य पुण्य का कारण शुभ अध्यवसाय है जो भावपुण्य है, और द्रव्य-पाप का कारण है अशुभ अध्यवसाय, जो भावपाप है। दोनों का बन्धतत्त्व में अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि बन्ध का कारणभूत काषायिक अध्यवसाय ही भावबन्ध है। शुभाशुभ आम्रव और बन्ध में सैद्धान्तिक दृष्टि से अन्तर . . .. निष्कर्ष यह है कि शुभ-अशुभ आसव (पुण्य-पाप आम्रव) कर्मों के आगमन के बीज हैं और शुभाशुभ बन्ध उन्हीं के अंकुर हैं। शुभाशुभ आसव पूर्वक्षणवर्ती हैं, और शुभाशुभ बन्ध उत्तरक्षणवर्ती हैं। १. इसके विशेष विवरण के लिए बन्ध-प्रकरण देखें। २. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित लेख-पुण्य-पाप की अवधारणा (जशकरण जी डागा) से पृ. १५३ ३. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) पृ. ५-६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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