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________________ ६४६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) १०८ अवस्थाओं में से किसी न किसी एक अवस्था में अवश्य रहता है। जैसे-क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों का कृत, कारित तथा अनुमोदित रूप से संरम्भ के साथ काय का योग होने से कुल १२ भेद हुए। काय के स्थान में वचन और मन पद लगाने से १२ x ३ = ३६ भेद हुए। तीनों के ३६ संरम्भकृत भेदों में संरम्भ के स्थान में समारम्भ और आरम्भ पद लगाने से ३६ + ३६ + ३६ = १०८ भेद कुल होते हैं। भाव-अजीवाधिकरण के भेद-प्रभेद परमाणु आदि मूर्त वस्तु द्रव्य-अजीवाधिकरण है, और जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति में उपयोगी मूर्त द्रव्य जिस अवस्था में विद्यमान होता है, वह भाव-अजीवाधिकरण है। यहाँ भाव-अजीवाधिकरण के मुख्य ४ भेद बताए गए हैं-(१) निवर्तना (रचना), (२) निक्षेप (रखना), (३) संयोग (मिलाना) तथा (४) निसर्ग (प्रवर्तन = प्रयोग)। निर्वर्तना के दो भेद हैं- मूलगुण-निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना। औदारिक आदि शरीर रूप (जिसमें मन, इन्द्रिय, अंगोपांग आदि) रचना, जो जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति में अन्तरंग साधन के रूप में उपयोगी होती है, वह है-मूलगुणनिर्वर्तना, जबकि पुद्गल द्रव्य की बाह्य साधन रूप में (लकड़ी, पत्थर आदि के रूप में) जीव की शुभाशुभ' परिणति में उपयोगी होती है, वह उत्तरगुण निर्वर्तना है।' निक्षेप भी चार प्रकार का है-(१) अप्रत्यवेक्षित, (२) दुष्प्रमार्जित, (३) सहसा-निक्षेप और (४) अनाभोग-निक्षेप। किसी वस्तु को भलीभांति देख-भाल किये बिना ही कहीं रख देना, अप्रत्यवेक्षित निक्षेप है। प्रत्यवेक्षण करने पर भी अच्छी तरह प्रमार्जन किए बिना ही वस्तु को जैसे-तैसे रख देना दुष्प्रमार्जित निक्षेप है। प्रत्यवेक्षण और प्रमार्जन किये बिना ही सहसा अर्थात् हड़बड़ी में, जल्दी-जल्दी में वस्तु को रख देना सहसा निक्षेप है। उपयोग के बिना ही किसी वस्तु को कहीं रख देना अनाभोग निक्षेप है। ___ संयोग के भी दो भेद हैं-भक्तपान-संयोगाधिकरण और उपकरण संयोगाधिकरण। अन्नजल आदि खाद्य-पेय वस्तुओं का संयोजन करना भक्तपान संयोगाधिकरण है और वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों का संयोजन करना उपकरण-संयोजनाधिकरण है। निसर्ग के भी तीन प्रकार हैं-शरीर, वचन और मन का प्रवर्तन क्रमशः कायनिसर्ग, वचन-निसर्ग और मनो-निसर्ग कहलाता है। इसके अतिरिक्त साम्परायिक कर्मों में शुभ-अशुभरूप (पुण्य-पाप रूप) में कर्म की उत्तरप्रकृतियों के अनुसार विभिन्न बन्धहेतु के रूप में शुभाशुभ आम्नव बताये हैं। उनका विस्तृत वर्णन हम आगे बन्ध के प्रकरण में करेंगे। १. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलाल जी) से पृ. १५४-१५५ २. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) से पृ. १५५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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