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________________ ६४८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) आनव और बन्ध में सैद्धान्तिक दृष्टि से एक अन्तर यह भी है कि तत्त्वार्थ- सूत्र में प्रत्येक मूल कर्म-प्रकृति के जो आस्रव गिनाये गए हैं, उसके अतिरिक्त आस्रव भी उनके हो सकते हैं। जैसे वध, बन्धन, ताड़न आदि तथा अशुभ प्रयोग आदि असातावेदनीय के आम्रवों में नहीं गिनाये हैं, फिर भी वे उनके आसव हैं। इतना होने पर भी आसव तो एक समय में नियमानुसार एक कर्म-प्रकृति का ही होता है, किन्तु बन्ध तो एक समय में एक प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी अविरोधी प्रकृतियों का भी हो जाता है। ___यह शास्त्रीय नियम है कि सामान्यतया आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों का बन्ध एक साथ होता है। इस नियम के अनुसार जब ज्ञानावरणीय कर्मप्रकृति का बन्ध होता है, तब वेदनीय आदि छहों कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध होता है। इस दृष्टि से एक कर्मप्रकृति के आसव अन्य कर्मप्रकृति के भी बन्धक हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि तब फिर प्रकृति-विभाग से आसवों के पृथक्-पृथक् विभाग करने का क्या प्रयोजन है।' इसका समाधान करते हुए पं. सुखलाल जी कहते हैं कि आसवों का कर्मप्रकृतियों के अनुसार जो पृथक्-पृथक् विभाग बतलाया गया है, वह अनुभाग (रस) बन्ध की अपेक्षा से बताया गया है। किन्तु किसी भी एक कर्मप्रकृति के आसव के सेवन के समय उस कर्मप्रकृति के अतिरिक्त अन्य कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध होता है, यह शास्त्रीय नियम केवल प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से घटित करना चाहिए, न कि अनुभाग बन्ध के विषय में। निष्कर्ष यह है कि यहाँ आनवों का विभाग प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से नहीं, अनुभागबन्ध की अपेक्षा से है। अतः एक साथ अनेक कर्मप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध मान लेने से इस शास्त्रीय नियम में कठिनाई नहीं आती तथा प्रकृतिविभाग में उल्लिखित आसव भी केवल उन-उन कर्मप्रकृतियों के अनुभागबन्ध में ही निमित्त बनते हैं। इस प्रकार यहाँ आम्रवों का बन्ध के कारणरूप में जो विभाग निर्दिष्ट किया है, यह भी बाधित नहीं होता। इस व्यवस्था से पूर्वोक्त शास्त्रीय नियम एवं प्रस्तुत आसव सम्बन्धी विभाग दोनों अबाधित बने रहते हैं। "फिर भी इतना विशेष है कि अनुभागबन्ध की अपेक्षा से आम्नव का समर्थन भी मुख्य भाव की अपेक्षा से ही है। अर्थात्-ज्ञान-प्रदोष आदि आसवों के सेवन के समय मुख्य रूप से तो ज्ञानावरणीय कर्म के अनुभाग का बन्ध होता है, और उसी समय बंधने १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) (नया संस्करण) पृ. १६४ २. वही, पृ. १६४-१६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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