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सामाजिक सन्दर्भ में उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान ७९ शुभ और शुद्ध कर्मों के अर्जन के लिए ही समाज आदि का निर्माण किया गया
यही कारण है कि आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के युग में जब तक लोग अकर्मभूमिक रहे, तब तक वे यौगलिक रूप में व्यक्तिवादी ही रहे, केवल अपने ही खाने-पीने, रहने-सहने की चिन्ता तक ही वे सीमित थे। उनका न तो कोई परिवार होता था, न ही समाज, राष्ट्र, ग्राम, नगर, गण, ज्ञाति आदि कोई था, युगपत् एक बालक युगल के सिवाय और कोई सन्तान नहीं होती थी। उनके भी पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, आदि का कोई भार उन पर नहीं होता था, क्योंकि एक जोड़ा पैदा होते ही, उसे जन्म देने वाला पहला जोड़ा (युगल) मर जाता था। नवोत्पन्न युगल का प्रकृति से ही पालन-पोषण होता था। शिक्षण-संस्कार, सभ्यता, संस्कृति, धर्म-कर्म आदि का तो नामोनिशान ही न था। वन में ही निश्चिन्त होकर रहते और एक जोड़े को जन्म देकर चल बसते। न कभी संघर्ष, न ही तू-तू-मैं-मैं, न कोई व्यापार-धंधा, न ही कमाने-खाने की चिन्ता। यही कारण है कि उस समय तक धर्म, नीति, समाज रचना, सभ्यता, संस्कृति आदि का अस्तित्व नहीं
___ भगवान् ऋषभदेव ने उन्हें धर्मनीति, कर्म-अकर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, सभ्यतासंस्कृति आदि की शिक्षा-दीक्षा दी। समाज रचना की। उन्हें स्व-स्व योग्यता के अनुसार पृथक्-पृथक् कर्म बता का व्यापक समाज की सेवा करने हेतु चार वर्षों में समाज को वर्गीकृत किया। धर्म-कर्म भी बताया। किन्तु यह सब बताया कर्म-सिद्धान्त को मद्देनजर रखकर ही। इस तथ्य को उन्होंने सदैव दृष्टिगत रखा कि यह नवोदित समाज शुद्ध कर्म (अबन्धक कर्म) रूप या संवर-निर्जरारूप धर्म का पालन करे। सहअस्तित्व एवं सहयोग का मंत्र भी कर्मक्षय या शुभकर्मार्जन के लिए ..परन्तु परिवार, वर्ण (वर्ग), समाज या संघ के साथ व्यवहार में कहीं संघर्ष, कलह, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोधादि कषाय आदि से प्रेरित होकर अशुभ कर्म न कर बैठें, शुभ कर्म करें, सामूहिक रूप में सबके साथ मिल-जुलकर मैत्रीभाव से रहें, एक-दूसरे की सेवा, सहयोग सह-अस्तित्व सहानुभूति के आधार पर जीएँ।' इसके लिए तीन वर्षों में समाज को संगठित किया।
१. (क) देखें-कल्पसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उसहचरियं आदि में भ. ऋषभदेव का चरित्र। लेखक का
___ऋषभदेव : एक परिशीलन ग्रन्थ (ख) 'स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः। (ग) 'मित्ती मे सव्वभूएसु वेर मज्झ न केणई।'
-आवश्यक सूत्र (घ) 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्तिं भूयाई कप्पए।'
-उत्तरा. ६/२
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