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________________ ८0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) यही कारण है कि भगवान ऋषभदेव का सह-अस्तित्व आदि के साथ सामाजिक जीवन जीने का यह स्वर उनके अनुगामी ऋषियों में प्रतिध्वनित हुआ। उन्होंने सर्वभूत-मैत्री एवं विश्वबन्धुत्व के सन्दर्भ में समाज को ये मूलमंत्र दिये थे-"हम सब एक दूसरे की रक्षा करें, समस्त साधनों का साथ-साथ (मिल-जुलकर) उपभोग करें, साथ-साथ पराक्रम (पुरुषार्थ) करें, हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम परस्पर द्वेष न करें। ___इसके अतिरिक्त धर्ममय समाज रचना के सन्दर्भ में एक साथ, शुभकर्म के साथ . जीने की प्रेरणा देते हुए उन्होंने कहा-"तुम सब मिलकर साथ-साथ चलो, साथ-साथ मिलकर एक दूसरे के साथ बोलो, तुम एक दूसरे के दिलों को जानो। "तुम्हारा मनन करने का तरीका-मंत्र समान हो, तुम्हारी गोष्ठी-विचारगोष्ठी या समिति (सभा) एक हो, तुम्हारी प्याऊ-जल पीने का स्थान एक हो, तुम्हारे चित्त में दूसरों के सुख-दुःख में सहयोग के साथ जीने की भावना हो।"३ महाराष्ट्र के संत तुकाराम ने भी ऋषियों के स्वर में स्वर मिलाते हुए सहयोगपूर्वक जीने की प्रेरणा देते हुए कहा-"हम लोग परस्पर एक दूसरे की सहायता करें और सभी एक सुमार्ग पर चलें।" भगवद्गीता में भी सह-अस्तित्व एवं सह-सुकर्म की भावना की प्रेरणा है-"तुम लोग परस्पर सहयोग के साथ जीने की भावना रखते हुए परम श्रेय (धर्म) को प्राप्त कर सकोगे।"५ निपट स्वार्थ आदि की संकीर्ण भावना से ही राग-द्वेष-कषायादि का प्रादुर्भाव ___कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से विचार किया जाए तो यह तथ्य स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि राग, द्वेष या कषाय का प्रादुर्भाव व्यक्तिगत या अपने ही निपट स्वार्थ का, अहंकार और ईर्ष्या का, अपने ही अस्तित्व का, अपने ही सुख-दुःख का, या अपने ही जीने का विचार करने से होता है, परन्तु वे ही व्यक्ति जब सामूहिक रूप से समाजबद्ध, -उपनिषद् -उपनिषद् १. (क) "मित्रस्य चक्षुषा सर्वभूतान् समीक्षामहे।" (ख) 'सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यं करवावहै, तेजस्विनावधीतमस्तु, या विद्विषावहै।" २. "संगच्छध्वम् संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्।" ३. "समानो मंत्रः, समितिः समानी, समानी प्रपा, सहचित्तमेषाम्।" ४. "एकमेका साह्य करूँ, अवधे धरु सुपंथ।" ५. "परस्परं भावयन्तः श्रेयः परभवाप्स्यथ।" --संत तुकाराम भक्त - भगः गीता ३/११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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