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सामाजिक सन्दर्भ में उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान ८१ परिवारबद्ध, राष्ट्रबद्ध होकर शुभ या शुद्धकर्म के अनुसार चलने और पूर्वोक्त सह-अस्तित्व की प्रेरणाओं के अनुसार जीने का उपक्रम या पराक्रम करते हैं तो स्वाभाविक है कि राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि मन्द-मन्दतर होते जाएँगे। बशर्ते कि विश्व-मैत्री का मंत्र सामने रखा जाए; राग, द्वेष, मोह आदि का भाव न आने दिया जाए, क्योंकि ऐसा करने से अशुभ (पाप) कर्म का बन्ध होता है। अशुभ कर्मबन्ध से बचाने के लिए सर्वभूतमैत्री का मंत्र
यही कारण है कि जैन कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ तीर्थंकरों और ऋषि-मुनियों ने केवल एक समाज, जाति, परिवार, नगर, धर्म-सम्प्रदाय, संघ, या राष्ट्र आदि के प्रति मोह, ममत्व या रागभाव रखकर व्यक्ति या समाज अशुभ कर्मबन्ध न कर बैठे, इस दृष्टि से विश्वव्यापी सह-अस्तित्व का यानी समस्त प्राणियों के प्रति आत्मीयता का मूलमंत्र दिया-"मेरी सर्व प्राणियों के साथ मैत्री है, किसी के साथ वैर-विरोध नहीं है।" "हे परमात्मदेव! मेरी आत्मा सदैव प्राणिमात्र पर मैत्रीभाव, गुणिजनों के प्रति प्रमोद भाव, कष्ट पीड़ित दुःखी प्राणियों के प्रति करुणाभाव और विपरीत वृत्ति-प्रवृत्ति वाले प्राणियों के प्रति उपेक्षाभाव रखें। ऐसा करने से राग-द्वेष,कषाय आदि स्वतः मन्द-मन्दतर होंगे, तथा पापकर्म-अशुभकर्म का बन्ध नहीं होगा।
इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में इसी तथ्य की ओर इंगित किया है कि "सर्वभूतात्मभूत बनकर जो समस्त प्राणियों को समभाव से देखता है और हिंसादि . आनव-द्वारों को बन्द कर देता है, उसके पापकर्मों का बंध नहीं होता।"२
- तीर्थंकरों द्वारा धर्ममय तीर्थ-स्थापना या संघरचना का मूल उद्देश्य या प्रयोजन भी यही था कि संघबद्ध होकर जीने से मानव शुद्धोपयोग (धर्म-शुद्धकर्म) में या कम से कम शुभोपयोग (शुभकर्म) में जीवन जीएगा। पाप (अशुभ) कर्म और उसके कटुफल से बच
कर्मविज्ञान-प्रेरित आत्मौपम्य सिद्धान्त व्यक्ति को समाज एवं समष्टि से जोड़ता है . .इस सम्बन्ध में पं. सुखलालजी लिखते हैं-"आत्म-समानता के सिद्धान्त के अनुसार विचार करें या आत्माद्वैत के सिद्धान्त के अनुसार विचार करें, एक बात तो
१. (क) मित्ती मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणई।"
-आवश्यक सूत्र (ख) सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थ्यभावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममाऽत्मा विदधातु देव।" -अमितगति सामायिकपाठ १ २. सब्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाई पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ॥
-दशवै.४/९
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