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८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) सुनिश्चित है कि कोई व्यक्ति (भले ही साधु हो) समूह से बिलकुल अलग न तो है औरच ही उससे अलग रह सकता है। एक व्यक्ति के जीवन-इतिहास के लम्बे पट पर नजर दौड़ाकर विचार करें तो हमें तुरंत दिखाई देगा कि उसके ऊपर पड़े हुए और पड़ने वाले संस्कारों में प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से दूसरे असंख्य व्यक्तियों के संस्कारों का हाथ है और वह व्यक्ति जिन संस्कारों का निर्माण करता है, वे भी केवल उसमें ही मर्यादित न रहकर समूहगत अन्य व्यक्तियों में प्रत्यक्ष या परम्परा से संचरित होते रहते हैं।......"
आगे वे लिखते हैं-"...तत्त्वज्ञान भी इसी अनुभव के आधार पर कहता है कि व्यक्ति, व्यक्ति के बीच चाहे जितना भेद दिखाई दे, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति किसी एक ऐसे जीवन-सूत्र से ओतप्रोत है कि उसके द्वारा वे सब व्यक्ति आस-पास एक दूसरे से जुड़े हुए
जैन कर्मविज्ञान का रहस्य न समझ पाने से व्यक्तिवाद की भ्रान्ति
यहाँ तक तो पण्डितजी के विचार ठीक हैं। परन्तु इससे आगे वे स्वयं जैन कर्मविज्ञान के व्यक्तिवादी होने का कारण प्रकट करते हैं-"दुःख से मुक्त होने के विचार में से ही, उसका कारण माने गये कर्म से मुक्त होने का विचार पैदा हुआ। ऐसा माना गया कि कर्म, प्रवृत्ति या जीवन-व्यवहार की जिम्मेदारी स्वयं ही बन्धनरूप है, जब तक उसका अस्तित्व है, तब तक पूर्ण मुक्ति सर्वथा असम्भव है। इसी धारणा में से पैदा हुआ कर्ममात्र से निवृत्ति का विचार...। परन्तु इस विचार में जो दोष था, वह धीरे-धीरे सामूहिक जीवन की निर्बलता और लापरवाही के रास्ते से प्रकट हुआ।.... सामूहिक जीवन की कड़ियाँ टूटने और अस्त-व्यस्त होने लगीं।....."२
कर्मविज्ञान का रहस्य ठीक न समझ पाना भी इन वैयक्तिक विचारों के लाभालाभ का कारण है। पिछले पृष्ठों में हमने यह भलीभांति सिद्ध कर दिया था कि कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ तीर्थंकरों और उनके अनुगामी साधकों ने आत्मवत् सर्वभूतेषु, विश्वमैत्री, या आत्मौपम्य के सिद्धान्त को मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं माध्यस्थ्य के सहारे व्यावहारिक जीवन में उतारने की बात कही है; अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति आत्मीयता की बात कही है। मानवमात्र के साथ आत्मौपम्य तथा विश्वमैत्री-विश्ववात्सल्य की भावना को साकार करने के लिए ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, संघधर्म, गणधर्म, श्रुतचारित्रधर्म आदि नैतिकताप्रधान एवं आध्यात्मिकता-प्रधान धर्मों के पालन की बात कही है। धर्मसंघों की रचना भी इसी उद्देश्य से हुई है।
१. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'वैयक्तिक और सामूहिक कर्म,' लेख से पृ.
२३८-२३९ २. वही, पृ. २३९
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