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सामाजिक सन्दर्भ में-उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान ८३
जैन कर्मविज्ञान द्वारा आत्मौपम्यभाव से यत्नाचारपूर्वक चर्या करने की प्रेरणा
परन्तु भ्रान्ति यह हो गई कि कर्ममात्र को, प्रवृत्तिमात्र या क्रियामात्र को कर्मबन्धन का कारण मान लिया गया, जब कि हम ‘कर्म के विराट् स्वरूप' (तृतीय खण्ड) में यह भलीभांति समझा आए हैं कि जीव जब तक संसारी है, तब तक, चाहे वह केवलज्ञानी, वीतराग या जीवन्मुक्त तीर्थंकर भी हो जाए; तब भी उसे कर्म (प्रवृत्ति या क्रिया) तो करने ही पड़ेंगे। परन्तु उनकी, या यतनापूर्वक आत्मौपम्यभाव से, अरागद्विष्ट होकर चर्या करने वाले साधक की क्रिया से साम्परायिक आस्रव (कर्मागमन) नहीं होता, केवल ईर्यापथिक आम्नव होता है, जो कर्मबन्ध का वास्तविक कारण नहीं है। बन्ध भी है तो नाममात्र का, पहले समय में बद्ध-स्पृष्ट होता है, दूसरे समय में वेदन करता है और तीसरे समय में निर्जीर्ण होकर झड़ जाता है।'
गृहस्थ-जीवन में तो प्रत्येक कर्म करना ही पड़ता है, साधु-जीवन में भी आहार-पानी, भिक्षा, स्वाध्याय, विहार, निहार, गुरु या बड़ों की सेवा, रोगी या वृद्ध साधु की सेवा आदि प्रवृत्तियाँ भी करनी पड़ती हैं। यहाँ तक कि संघ की उन्नति के लिए संघबद्ध प्रत्येक व्यक्ति को धर्मध्यान, धर्माचरण, मोक्षमार्ग, तप, त्याग, नियम आदि में प्रवृत्ति की प्रेरणा भी करनी पड़ती है। ___ परन्तु यह सब करते हुए भी वहाँ यलाचार, अनासक्ति, रागद्वेष- मन्दता, वीतरागता या कषायनिवृत्ति अथवा कषायविजय, आदि सूत्रों को ध्यान में रखने की बात कही गई है, ताकि पाप कर्म का बन्ध न हो।
जब तक छद्मस्थ है, तब तक पुण्य कर्म का बन्ध सर्वथा छूट नहीं सकता। इसीलिए साधक को प्रतिक्षण अप्रमत्त एवं सावधान होकर चर्या करने की बात कही गई है। अपने धर्मसंघ, अरिहंत-सिद्ध देव एवं निर्ग्रन्थ गुरु के प्रति भक्ति, अनुराग एवं प्रवचन भक्ति, वात्सल्य, दया, करुणा,अनुकम्पा आदि प्रशस्तरागमूलक व्यवहार की भी प्ररूपणा की गई है।
परन्तु दूसरी ओर जहाँ, उत्कट राग, मोह, आसक्ति, व्यक्तिगत स्वार्थ, अहंकार, लोभ आदि का प्रसंग हो, या दूसरे के अनुचित व्यवहार को देखकर क्रोध, रोष, ईर्ष्या, वेष, क्षोभ, अशान्ति या उद्विग्नता का प्रसंग हो, वहाँ इन दोनों से दूर, तटस्थ एवं समभाव में लीन रहने की बात भी कही गई है।
१. (क) "सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकर्यापथयो।"
(ख) उत्तराध्ययन अ.२९,७१वाँ बोल
-तत्त्वार्थ सूत्र अ. ६ सू.५
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