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________________ ८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) इसका मतलब है-एक ओर से व्यक्तिगत जीवन के आध्यात्मिक विकास के लिए समता, क्षमादि दशविध धर्म, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म, तपस्या, सामायिक आदि की साधना करनी चाहिए, वहाँ दूसरी ओर से इनके अविवेक, यशकीर्ति, इहलौकिक पारलौकिक विषयाकांक्षा-कामना, (नियाणा) अर्थलाभ, साधनलाभ, गर्व, भीति, प्रशंसा, प्रसिद्ध, वाहवाही,आदि विकृतियों (अतिचारों) से भी दूर रहने का सुझाव पदपद पर दिया है, ताकि कर्मक्षयकारक प्रवृत्तियों में मलिनता आने से वे कर्मबन्धक न बन जाएँ। जैसा कि सूत्रकृतांग में कहा गया है-"चाहे व्यक्ति नग्न रहे, मास-मास तक अनशन करे, और शरीर को सुखा डाले, किन्तु यदि अंदर में माया, कपट एवं दम्भ करता है तो वह जन्म-मरण के अनन्त चक्र में भटकता रहता है।"२ __ दूसरी ओर, समाज और समष्टि के प्रति मैत्रीभाव एवं आत्मौपम्य दृष्टि रखने के साथ-साथ उनके साथ व्यवहार या सम्पर्क में कहीं तीव्र राग, आसक्ति, उत्कट मोह, ममत्व, गृद्धि आदि भाव न आ जाएँ, तथा समाज के विभिन्न घटकों के प्रति व्यवहार या सम्पर्क में ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, दुर्भाव, अहंकार, मद, तिरस्कार आदि की भावना न आ जाए-इसका पूरा ध्यान पद-पद पर रखने का निर्देश कर्मविज्ञान करता है। ऐसी सावधानी न रखने पर कर्म से मुक्त होने या शुभकर्मयुक्त होने के बदले व्यक्ति पाप कर्मबन्ध से युक्त हो जाता है। उच्च साधक के लिए भी समाज-समष्टि के प्रति आत्मीयता के साथ तटस्थता आवश्यक उदाहरणार्थ- किसी जीव की रक्षा करने, उस पर अनुकम्पा करने, कोई मारता हो तो उसे बचाने तथा जीवदया करने की बात उच्च साधक की मर्यादा में है। परन्तु फिर उस जीव के प्रति मोह, आसक्ति या रागभाव लाकर उसे पपोलना, पालना-पोसना यह उसके लिए अशुभ कर्मबन्धकारक हो जाता है। १. (क) देखें -संसय-रोस-अविणउ- अवहुमाण । सामायिक के १0 मानसिक दोष अविवेक-जसो-कित्ती, लाभत्थी गव्व-भय-नियाणत्थी। (ख) देखें- तपस्या और पंचविध आचार (धर्माचरण) में इहलोक-परलोक- सम्बन्धी आकांक्षा, विषयवासना, कामना, नामना आदि से बचने का निर्देश, -दशवैकालिक अ.९, उ.४ में तपः समाधि और आचार-समाधि का वर्णन। (ग) देखें- पंचमहाव्रतों तथा श्रावक के १२ व्रतों के अतिचारों (दोषों) से बचने का निर्देश ___ आवश्यक सूत्र में। २. "जई वि य णगिणे किसे चरे, जइवि य भुंजे मासमंतसो। जे इह मायाई मिज्जई, आगंता गडभायऽणंतसो॥" -सूत्रकृतांग श्रु.१, अ.२, उ.१, गा.९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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