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सामाजिक सन्दर्भ में - उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान ७७
आचरण सिद्ध हो सकता है। समाजसेवा, विनय धर्म, जीवदया, आदि कर्मक्षयकारक आभ्यन्तरतपरूप धर्म का आचरण क्या समाज, परिवार, राष्ट्र या समष्टि के साथ सम्पर्क हुए बिना हो सकता है ?
कर्मसिद्धान्त सामाजिक ही नहीं, सर्वभूतात्मभूत बनने का प्रेरक
महात्मा गांधी से किसी ने एक बार कहा - "बापू! अब तो स्वराज्य मिल गया है, अब आप हिमालय में चले जाइए।" इसका उत्तर उन्होंने कर्मक्षयप्ररूपक तथा कर्मनिरोध-प्रेतिपादक कर्मसिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही विवेकपूर्वक दिया था - "यदि समाज हिमालय में जाएगा, तो मैं भी वहाँ चला जाऊँगा। मेरी साधना (अहिंसादि द्वारा कर्मक्षय की साधना) की कसौटी तो समाज के बीच में रहने पर ही हो सकती है ? 9
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इसका अभिप्राय यह है कि समाज में किसी दुःखी, पीड़ित, पददलित, अभावग्रस्त एवं असहाय, रुग्ण, दीन-हीन को देखकर यदि मानव करुणा, दया या सेवा नहीं करता, तो वह कर्मक्षय करने या शुभकर्म करने अथवा निष्काम कर्म करने के सुन्दर अवसर को चूक जाता है।
इसी प्रकार समाज सेवक या साधक की कोई निन्दा करता है, विरोध, आक्षेप, दोषारोपण या प्रहार आदि करता है, उस समय वह क्षमा, समभाव, शान्ति (उपशम), अनुद्विग्नता, अक्षोभ, अक्रोध आदि नहीं करके क्रोध, अहंकार, अशान्ति, उद्विग्नता, कलह, अहंकार, क्षोभ आदि करता है या मन में लाता है, तो वह भी कर्मक्षय करने के सुन्दर अवसर को चूक जाता है। ये दोनों ही प्रकार के शुभ अवसर समाज के सम्पर्क में रहने पर ही प्राप्त होते हैं।
यही कारण है कि कर्मसिद्धान्त व्यक्ति को सामाजिक, मानवीय या राष्ट्रीय ही नहीं, सर्वभूतात्मभूत बनने तथा समस्त जीवों को समभाव से देखने अर्थात्आत्मौपम्यभावपूर्वक सोचने-विचारने और व्यवहार करने की प्रेरणा देता है; ताकि वह कर्मों के आनवद्वारों को बन्द करके कम से कम पापकर्मबन्ध से दूर रह सके अथवा कर्म-निरोध या कर्मक्षय कर सके।
आशय यह है कि संसार के समग्र जीवों को मानव समूह या समग्र प्राणिसमूह के साथ तथा अजीव पदार्थों के साथ वास्ता पड़ता है या एक या दूसरे प्रकार से सम्पर्क होता है, उस समय यानी सचेतन (जीव) और अचेतन (जड़ - अजीव) पदार्थों के साथ सम्पर्क
१. 'महादेवभाई की डायरी' से
२. देखें- दशवैकालिक सूत्र के अ. ४, गा. ९
" सव्वभूयप्यभूयस्स समं भूयाई पासओ.......!"
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