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________________ ७६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) की स्थापना करते हैं और लाखों जिज्ञासु और मुमुक्षु भव्य नर-नारियों को संघबद्ध तथा व्रतबद्ध करते हैं, ताकि वे मोक्षमार्ग (कर्ममुक्ति के पथ-साधन) रूप सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप की आराधना-साधना करके स्वयं कर्मों का क्षय (निर्जरा) अथवा निरोध ( संवर) कर सकें। इस प्रकार भगवान् महावीर आदि प्रत्येक तीर्थंकर कर्मक्षयरूप रत्नत्रयात्मक धर्म की सामूहिक रूप से आराधना-साधना. करा कर समाज का जीवन निर्माण करते हैं। क्या यह कर्मसिद्धान्त का समाज रचना से सम्बन्ध नहीं है ? जैन शास्त्रों एवं धर्मग्रन्थों में यत्र-तत्र उल्लेख है कि भगवान् महावीर और उनके अनुगामी साधु श्रावक वर्ग ने समस्त धर्म-सम्प्रदाय, मत-पथ, जाति, कौम, वर्ण-वर्ग, तथा लिंग और वेष के पुरुषों और महिलाओं को अपने धर्मसंघ में स्थान दिया था। और सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग (कर्ममुक्ति का पथ ) बता कर अहिंसा-सत्यादि सद्धर्मों का आचरण करके पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का क्षय करने और नये अशुभ कर्मों को आने से रोकने की सामूहिक रूप से साधना करने का सुअवसर दिया था। जिसके फलस्वरूप साधु-श्रावकवर्ग के लाखों भ्रर-नारी समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए। हजारों व्यक्ति अपने शुभकर्मों, या शुद्ध कर्मों के फलस्वरूप देवलोक में जन्म लेकर उच्च देव बने अथवा मनुष्य लोक में जन्म लेकर उत्कृष्ट मानव अथवा साधु श्रावक बने। कई नर-नारी नीति-धर्म का शुभाचरण करके मार्गानुसारी सद्गृहस्थ बन कर सुख सम्पन्न हुए।' क्या यह कर्मसिद्धान्त-प्रतिपादित कर्म-मुक्ति, कर्म- निर्जरा, कर्म-संवर, अथवा पुण्य कर्म उपार्जन करने का या अशुभ कर्म को शुभ कर्म में संक्रमित करने का समूहबद्ध - संघबद्ध प्रयोग नहीं है ? क्या इन सब तथ्यों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कर्मसिद्धान्त का समाज संरचना से कोई सम्बन्ध नहीं है ? समाज के साथ सम्बन्ध से ही कर्मक्षय या निरोध की साधना होगी? कई लोग जैन कर्मसिद्धान्त पर यह आक्षेप करते हैं कि कर्म का केवल व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्ध है, सामूहिक जीवन के साथ नहीं । किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि समाज के साथ सम्पर्क रखे बिना न तो कर्मों को क्षय करने का अवसर आता है और न ही अहिंसा, सत्य, क्षमा, सेवा, दया, करुणा, मृदुता, ऋजुता आदि कर्म-संवररूप धर्म का १. देखें- (क) कल्पसूत्र सुखबोधिनी टीका । (ख) समवायांग सूत्र में तथा उत्तराध्ययन (अ.३६) में उल्लिखित १५ प्रकार के सिद्ध (मुक्त) होने का उल्लेख देखें। जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'वैयक्तिक एवं सामूहिक कर्म' लेख से पृ. २३९ २. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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