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सामाजिक सन्दर्भ में उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान ७५
जो कार्य तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा में होते हैं, वे तो अवश्य ही प्रशंसनीय एवं आराधनाजनित होने से मोक्षदायेक भी होते हैं। जो कार्य पुण्यजनक होते हैं, वे भव-भ्रमण के कारण होने से निश्चयदृष्टि से प्रशंसनीय नहीं होते, किन्तु व्यवहारदृष्टि से लोकव्यवहार में प्रशंसनीय होते हैं। धर्म-मार्ग पर चढ़ाने में भी वे कार्य कदाचित् उपादेय होते हैं।' पारमार्थिक दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि
जैन कर्मविज्ञान में यह कहा गया है कि पारमार्थिकदृष्टि (निश्चय दृष्टि) से कोई भी जीव या अजीव द्रव्य किसी दूसरे का हित या अहित नहीं कर सकता किन्तु च्यवहारदृष्टि से वह दूसरे के हित, कल्याण या उपकार में निमित्त बन सकता है। इसी आधार पर उसके द्वारा किये गए लोकहितकर कार्य प्रशंसनीय माने जाते हैं। __हाँ, कर्मसिद्धान्त इतना अवश्य निर्देश करता है कि इन लोकहितकारी प्रशंसनीय कार्यों को करते-कराते समय व्यक्ति प्रशंसा, प्रसिद्धि, यशकीर्ति, इहलौकिक-पारलौकिक कामनाओं, वासनाओं आदि से दूर रहे। अर्थात् दान, शील, तप, भाव आदि की सामूहिक आराधना-साधना करते समय भी उपर्युक्त दोषों से आत्मा को मलिन न करे। जैनकर्मसिद्धान्त का समाज संरचना से सम्बन्ध अनिवार्य ... जैनकर्म-विज्ञान से अनभिज्ञ कुछ लोग वर्तमान राजनैतिक, समाज-वादी या साम्यवादी विचारधारा के प्रवाह में बहकर, इस पर ऐसा आक्षेप करते हैं कि."कर्मसिद्धान्त का सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से है, समाज की संरचना से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।"३ __ ऐसे लोग या तो जैन धर्म के तीर्थंकरों द्वारा स्थापित एवं सुसंगठित धर्मतीर्थ (धर्ममय समाज-संघ) की रचना या स्थापना से बिलकुल अनभिज्ञ हैं, अथवा जानते हुए भी यह तथ्य उनकी दृष्टि से ओझल हो चुका है। जैनधर्म के प्रत्येक तीर्थंकर स्वयं तो चार घातिकर्मों (आत्मगुणघातक कर्मों) का सर्वथा क्षय कर चुकते हैं और शेष चार अघातिकर्मों का क्षय करने के लिए कटिबद्ध होते हैं। वे धर्मतीर्थ (धर्ममय संघ-समाज)
१. (क) "आज्ञाराद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च।'-अयोगव्यवच्छेदिका कारिका
(ख) 'आणाए मामगंधम्म'-आचारांग १/६/२ (ग) 'एसा ते सिं आण कज्जे सच्चेण हेतव्व।"
-बृहत्कल्पभाष्य २. (क) "परस्परोपग्रहो जीवनाम्।"
-तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ सू.२१ (ख) 'जगत्-काय-स्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम्।
वही, अ.७ सू.७ .. ३. जिनवाणी कर्म-सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'कर्मसिद्धान्त और समाज रचना' लेख से पृ.२९५
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