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________________ ७४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) अथवा किसी जाति-कौम के उत्कर्ष आदि के लोभ से लोगों को उकसाना, परस्पर कलह, संघर्ष या द्वेषभाव कराना; समाज या राष्ट्र में परस्पर फूट डालना, अलगाव पैदा करना; दूसरे धर्म-सम्प्रदाय या जाति-कौम के प्रति द्वेषवश, या ईर्ष्यावश निन्दा, अवमानना, अथवा घृणा करना-कराना; सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करना-कराना; तोड़-फोड़, आगजनी, राहजनी या दंगेफसाद करना-कराना; ये और ऐसे कुकर्म किसी भी धर्म-सम्प्रदाय या जाति-कौम अथवा राष्ट्र-प्रान्त की ओर से लोक-हित के नाम पर किये जाते हों, पापकर्मबन्धक होने से निन्दनीय हैं। शुभकर्मबन्धक होते हुए भी ये कार्य प्रशंसनीय माने जाते हैं परन्तु कई कार्य ऐसे हैं, जो कर्मक्षयकारक नहीं हैं, किन्तु शुभाशय से किये जाने के कारण पुण्यजनक और लोकहित की दृष्टि से वे प्रशंसनीय माने जाते हैं। जैन कर्मविज्ञान ने उन्हें 'अन्नपुण्णे' 'पाणपुण्णे', 'लयणपुण्णे' आदि के रूप में नौ प्रकार के कार्यों को पुण्यवन्ध के कारण माने हैं। इसी सन्दर्भ में धर्मशाला, सार्वजनिक कूप, बावड़ी आदि बनवाना, प्याऊ लगवाना, अन्नसत्र खोलना, सार्वजनिक निःशुल्क चिकित्सालय, भोजनालय, या विद्यालय या पुस्तकालय चलाना, संघ के लिए धर्मस्थान बनवाना, इत्यादि पुण्यकार्य गृहस्थ वर्ग के द्वारा शुभ भावना से किये जाने पर लोकहितकर एवं प्रशंसनीय होते हैं। किन्तु आरम्भ-परिग्रहत्यागी होने से महाव्रती साधुवर्ग के लिए ये कार्य लोकहितकर होते हुए भी अनाचरणीय होते हैं। गृहस्थवर्ग पूर्णतया आरम्भ-परिग्रह त्यागी नहीं होता, इसलिए वह अपनी शक्ति, बुद्धि तथा भावना के अनुसार इन लोक-हितकारी शुभ कार्यों (पुण्य कर्मों) को करता रहता है। ये कार्य पुण्यबन्धक भी और कदाचित् कर्मक्षयकारक भी यह निश्चित है कि शुभ भावना से किये गये ये कार्य पापबन्धक नहीं होते, या तो ये पुण्यबन्धक होते हैं, या फिर निष्कामभाव से किये जाने पर ये निर्जरा (आंशिक कर्मक्षय) के कारण भी बन सकते हैं। (ख) व्रतयेत् खरकर्माऽत्र मलान् पञ्चदश त्यजेत्। टीका-खरकर्म = खरं क्रूरं प्राणिबाधकं कर्म व्यापारम्। -सागार धर्मामृत २१-२३ (ग) यथा-'यज्ञार्थ पशवः सृष्टा.....।' वैदिकी (याज्ञिकी) हिंसा हिंसा न भवति।" इनकी व्याख्या के लिए देखिये ‘आम्रव के द्वार' नामक पंचम खण्ड १) (क) "अन्नपुण्णे, पाणपुण्णे, लयणपुण्णे, सयणपुण्णे, वत्थपुण्णे, मणपुण्णे, वचनपुण्णे, कायपुण्णे, णमोक्कारपुण्णे।" -स्थानांगसूत्र, स्थान ९ . (ख) पुण्य की विस्तृत व्याख्या पंचम खण्ड में आसव के सन्दर्भ में देखिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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