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________________ सामाजिक सन्दर्भ में उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान ७३ पुण्यकर्मबन्धक कार्य भी प्रशंसनीय माने जाते हैं यद्यपि पंचमहाव्रतधारी, आजीवन सामायिकव्रती, स्व-परकल्याणसाधक साधुवर्ग होता तो लोकहितकर्ता ही है, परन्तु वह स्वयं अपनी साधुमर्यादा में रहकर ऐसे लोकहितकर कार्य करता-कराता है, जो निरवद्य (निष्पाप-निर्दोष) हों, तथापि उन लोकहितकार्यों के पीछे छद्मस्थ के जीवन में वीतरागदशा प्राप्त न होने तक प्रशस्तराग होता है, इसलिए छद्मस्थ साधक के लिए वे पुण्यकर्मबन्धक हैं, पापकर्मबन्धक नहीं। ___ यदि इन कार्यों के पीछे तुच्छ स्वार्थ, प्रसिद्धि, आसक्ति, मोह आदि का पुट न हो तो ये आगे चलकर कर्म-संवर और कर्म-निर्जरा के भी कारण हो सकते हैं, बशर्ते कि साधक सर्वभूतात्मभूत हो, तथा समस्त प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य भावना से ओतप्रोत हो एवं आनवों (हिंसा आदि) से निवृत्त हो।' किन्तु पुण्यबन्धक तथा संवर-निर्जराकारक, ये दोनों प्रकार के कार्य प्रशंसनीय हैं। लोकहित के नाम पर किये गए ये कार्य प्रशंसनीय नहीं जिन कार्यों के पीछे महारम्भ (महाहिंसा), महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध हो, जिनसे समग्र समाज का कल्याण न हो, जिनसे प्राणिवर्ग का अनिष्ट हो, अहित हो, जिनसे वास्तविक लोकहित न होता हो, जो केवल साम्प्रदायिक-जातीय या राष्ट्रीय द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, छल आदि दुर्भावनाओं पर आधारित हों, अथवा जो कार्य लौकिक तथा लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से निन्दनीय तथा अनैतिक (नीति-धर्म-विरुद्ध) हों, ऐसे अशुभकार्य (दुष्कर्म या अशुभ कर्म) पापकर्म-बन्धक हैं। इसलिए प्रशंसनीय नहीं हो सकते। जैन श्रावकों के आचार के सन्दर्भ में सप्तमव्रत के अतिचारों में १५ प्रकार के कर्मों को कर्मादान-खरकर्म कहकर इन्हें श्रावक के लिए तीन करण तीन योग (कृत-कारितअनुमोदित रूप से मन, वचन, काया) से त्याज्य तथा ये जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं हैं, ऐसा स्पष्टरूप से कहा गया है। अतः ये व्यवसाय भले ही लोकहितार्थ हों, किन्तु अनेक जीवों के शोषण एवं उत्पीड़न के कारणभूत हैं। इसलिए ये निन्दनीय एवं त्याज्य कर्म (व्यवसाय) हैं। और भी लोकहित के नाम पर विपरीत प्ररूपणा करना, यथा-यज्ञ या स्वर्ग के या देवी-देवों के नाम से पशुवध (पशुबलि या कुर्बानी) करना, सम्प्रदायवृद्धि, राज्यवृद्धि १. देखें-दशवैकालिक ४/९ २. (क) पनरस कम्मादाणाई जाणियव्वाई, न समायरियव्वाईं,..तिविहं तिविहेणं पच्चक्खाइ। -आवश्यक सूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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