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७० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
इस आक्षेप का एक समाधान यह है कि आत्मौपम्य भाव से, निष्काम बुद्धि से, यतनापूर्वक प्रशंसा, प्रसिद्ध आदि किसी भी इहलौकिक-पारलौकिक कामना से रहित निःस्वार्थ भाव से किये गए लोकहित के कार्य पापबन्ध के कारण नहीं बनते।'
यदि वे कार्य छद्मस्थ या प्रमत्त साधक द्वारा किये जाएँगे तो उनमें यत्किञ्चित् प्रशस्तराग होने से वे शुभ (पुण्य) बन्ध के कारण होंगे, और यदि वे कार्य वीतराग जीवन्मुक्त व्यक्ति द्वारा किये जाएँगे तो उनमें किसी प्रकार का रागादि या कषाय आदि का अंश न होने से वे शुद्ध कर्म (अकर्म) की कोटि के होंगे।
इसलिए पुण्य कर्म हों या शुद्ध कर्म (अकर्म) ये दोनों ही कर्म कर्मसिद्धान्त की व्यावहारिक दृष्टि से अवश्य ही कर्म-संवर, कर्म-निर्जरा या कर्म-मुक्ति के कारण होने से प्रशंसनीय हैं। किन्तु तुच्छ स्वार्थबुद्धि या बुरे आशय से किये गए लौकिक-लोकोत्तर सभी कार्य पापकर्म-बन्धक हो सकते हैं।
जैन-कर्म-विज्ञान-प्ररूपक तीर्थकर दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक लगातार वर्षीदान देते हैं, क्या यह लोक-हितकर कर्म प्रशंसनीय नहीं है ? ये सभी लोकहितकर कार्य प्रशंसनीय हैं - इसके अतिरिक्त चतुर्विध संघ की स्थापना करना, एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करके भव्यजनों को उपदेश देना, तथा उन्हें तप, त्याग, नियम, व्रत, प्रत्याख्यान आदि कराना, ये और इस प्रकार के निरवद्य निर्दोष कार्य (शुद्ध अबन्धक कर्म) मानव-समाज को कर्मों से मुक्त कराने, अथवा कम से कम अशुभ कर्मों से बचकर शुभ कर्मों में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से हुए हैं, होते हैं।
जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र में चारित्रविधि के सन्दर्भ में कहा गया है-"साधक एक ओर से (अशुभ कर्म) से विरति (निवृत्ति) करे और एक ओर से (शुभ या शुद्ध-अबन्धक कर्म में) प्रवृत्ति करे। अर्थात्-वह असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करे।" व्यवहार-चारित्र का लक्षण भी जैनाचार्य ने यही बताया है--"अशुभ कार्यों से विनिवृत्ति
१. इसके लिए देखें-दशवैकालिक सूत्र ४/९-८ २. 'दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व प्रत्येक तीर्थंकर एक वर्ष तक वर्षीदान देते हैं।'
-कल्पसूत्र
३. (क) चउब्विहे संघे पण्णत्ते, तं... समणा, समणीओ, सावगा, सावियाओ।"
-स्थानांग सूत्र स्था.४, उ. ४ सू. ६०५ (ख) ...... गामाणुगाम दुइज्जइ, अपडिबद्ध विहारं विहरेई।
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