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सामाजिक सन्दर्भ में उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान ७१
और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति को चारित्र समझो।" यह करने योग्य कार्य (कर्म) है, ऐसा ज्ञान करके अकर्तव्य का त्याग करना व्यवहारचारित्र है।' __इन और ऐसे ही लोकहित के कार्यों की प्रेरणा तीर्थंकर, सर्वज्ञ, केवली या उनके अनुगामी आचार्य, उपाध्याय, साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविकागण द्वारा भी की जाती है। अतः तीर्थंकरों तथा उनके अनुगामी साधु-श्रावकों द्वारा किये गए लोकहितकारी कार्य प्रशंसनीय ही माने जाते हैं; अप्रशंसनीय नहीं।
रायप्पसेणीय सुत्तं में वर्णन आता है-सर्वथा नास्तिक एवं क्रूरकर्मा श्वेताम्बिकानरेश प्रदेशी नृप को आस्तिक, श्रद्धालु, अहिंसक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से रमणीय बनाने में केशी श्रमण की प्रेरणा तो थी ही, चित्त प्रधान को भी श्रेय कम नहीं है। प्रदेशी राज के आस्तिक और श्रद्धालु बन जाने से सारी जनता को सुख-शान्ति और धर्म-प्रेरणा मिली। क्या यह लोकहितकारी प्रशंसनीय कार्य (कर्म) नहीं था? ___इसी प्रकारे ब्रह्मर्षि जयघोष मुनि, हरिकेशबल मुनि, संयतीराजर्षि के गुरु आचार्य गर्दभाली मुनिवर द्वारा एवं अनाथी मुनि द्वारा क्रमशः जाति-कुल-श्रुतादि मदग्रस्त ब्राह्मणों को यज्ञजनित हिंसा कार्यों, मदजनित पाप, तथा आखेटपरायण संयतीराजा को निर्दोष पशु-वध छुड़ाकर एवं बाह्यवैभव से सनाथ होने की मगध सम्राट श्रेणिक नृप की भ्रान्ति मिटाकर उन्हें सन्मार्ग पर लगाना क्या लोकहितकर प्रशंसनीय कार्य नहीं है?
स्वयं भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में चाण्डाल कुलोत्पन्न तपोधनी मुनि हरिकेशबल की आत्मिक ऋद्धि, तपस्या तथा अन्य कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
यही कारण है कि जैनशास्त्रों में ऐसे ग्राम, नगर, पट्टन, निगम एवं राजधानी आदि क्षेत्रों को धन्य एवं पुण्यशाली बताया गया है, जहाँ ऐसे लोकहितकारी, कर्त्तव्य-निर्देशक,
१. (क) एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं।
- असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं॥ (ख) "असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ति य जाण चारित्तं॥" (ग) "कायब्वमिणमकायव्वयं त्ति णाउण होइ परिहारो॥""
-उत्तरा. ३१/२ -द्रव्यसंग्रह सू.४५
-भगवती आराधना मू.९/४५
.. २. देखें-रायप्पसेणीय सुत्तं में प्रदेशी राजा का वर्णन। । ३. (क) देखें-उत्तराध्ययन, अध्ययन २५,१२,२० और १८ . . (ख) सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो न दीसई जाइ-विसेस कोवि। . सोवागपुत्तं हरिएसंसाहुं, जस्सेरिसा इढि-महाणुभागा॥
-उत्तराध्ययन अ.१२/३७ .
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