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________________ ६८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) इस आक्षेप का एक कारण यह भी सम्भव है कि डॉ. मेकेंजी पौर्वात्य और पाश्चात्य आचार-दर्शन के अन्तर को स्पष्ट नहीं समझ पाए। भारतीय आचारदर्शन कर्मसिद्धान्त पर आधारित है, वह अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक आचरण का भेद स्पष्ट करके उनका इहलौकिक-पारलौकिक अच्छा या बुरा कर्मफल भी बताता है। साथ ही, वह अनेक प्रकार की धार्मिक क्रियाओं-उपवास, ध्यान, समतायोग, साधना आदि को, तथा सप्तकुव्यसन-त्याग का एवं मानवता ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति करुणा, दया, आत्मीयता आदि को नैतिक-आध्यात्मिक दृष्टि से विहित व अनिवार्य मानकर इसके विपरीत अनैतिकता तथा क्रूरता, निर्दयता, अमानवता आदि को निषिद्ध मानता है। उसका भी शुभाशुभ 'कर्मफल' बताता है, जबकि पाश्चात्य आचार-दर्शन नैतिकता को सिर्फ मानव-समाज के पारस्परिक व्यवहार तक ही सीमित करता है। वह न तो सप्तकुव्यसनत्याग आदि नैतिक संयमों को मानता है, न ही मानवेतर प्राणियों के प्रति आत्मीयता को मानता है। यही कारण है पाश्चात्य जीवन में अनैतिकता और आध्यात्मिक विकास के प्रति उपेक्षा का! यही है नैतिकता के सन्दर्भ में कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता के विविध पहलुओं का दिग्दर्शन! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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