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६६. कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता ( ४ )
जलता रहता है। आन्तरिक निराशा हर घड़ी खाती रहती है। नशा पीकर गम गल करते रहते हैं।
नैतिकता की जगह भौतिकता ने ले ली है। स्वार्थ-त्याग का स्थान स्वार्थ-साधन ने लिया है। मांसाहार और मद्यपान के पक्ष में यह कुतर्क प्रस्तुत किया जाता है कि अप स्वादिष्ट भोजन और पेय की अपनी क्षणिक लोलुपतावश पशु-पक्षियों को तथा अप परिवार को भयंकर कष्ट सहना पड़ता है, उसकी हम क्यों चिन्ता करें ? जब मनुष्य इस प्रकार का अनैतिक और स्वार्थप्रधान बन जाता है तो उसका प्रतिफल भी कर्म के अनुसार देर-सबेर मिलता है । वह दूसरों की सुविधा - असुविधा की, न्याय-अन्याय की, या सुख-दुःख की परवाह नहीं करता ।
नैतिकता और धर्म-कर्म के प्रति अनास्था के कारण पारिवारिकता, कौटुम्बिकता और सामाजिकता का ढांचा लड़खड़ाने लगा है। जब नीति नियम नहीं, धर्म नहीं, आत्मा-परमात्मा नहीं, कर्म नहीं, कर्मफल नहीं, परलोक नहीं; तो फिर कर्तव्य पालन नहीं, स्वार्थत्याग नहीं, नैतिकता के आदर्शों के पालन के लिए थोड़ी-सी असुविधा भी उठाने की आवश्यकता नहीं। इस 'नहीं' की नास्तिकता ने व्यक्ति में संकीर्णता, पशुता और अनुदारता को बढ़ावा दिया है। नैतिकता का या ले-दे के व्यवहार का भी लोप होता जा रहा है। इस प्रबल अनास्था के फलस्वरूप उच्छृंखल आचरण, स्वच्छन्द निपटस्वार्थी एवं सिद्धान्तहीन जीवन तथा अपराधी प्रवृत्तियों को आंधी-तूफान की तरह बढ़ता देखा जा सकता है। ऐसा परिवार, समाज और राष्ट्र नरकांगार नहीं बनेगा तो और क्या होगा ?"
कर्मसिद्धान्त के अनुसार ऐसा अनैतिकतायुक्त परिवार, समाज और राष्ट्र कैसा होगा ? किसके लिए और कितना सुविधाजनक होगा? इसकी कुछ झांकी जहाँ-तहाँ देखी जा सकती है। वर्तमान का मानव अशान्त क्यों है ? इस पर विश्लेषण करते हुए डॉ. महावीर सरन जैन अपने लेख में लिखते हैं- २ "धार्मिक चेतना एवं नैतिकताबोध से व्यक्ति में मानवीय भावना का विकास होता है। उसका जीवन सार्थक होता है । .. .. आज व्यक्ति का धर्मगत (नैतिक) आचरण पर से विश्वास उठ गया है। पहले के व्यक्ति की आस्था जीवन की निरन्तरता और समग्रता पर थी । वर्तमान जीवन के आचरण •द्वारा अपने भविष्य ( इहलौकिक और पारलौकिक जीवन) का स्वरूप निर्धारित होता है। इसलिए वह वर्तमान जीवन को साधन तथा भविष्य को साध्य
मानकर चलता था।
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२.
अखण्डज्योति मार्च १९७२ पृ. १८-१९ से भावांश
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जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक, में 'कर्म का सामाजिक सन्दर्भ' लेख से पृ.
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