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नैतिकता के सन्दर्भ में-कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता ६५
जीवन-रक्षा के लिए यदि माता के हृदय में नैतिकता की दृष्टि से स्वाभाविक ममता न होती तो अनास्थावान माताएँ बच्चों की सार-संभाल करने में रुचि न लेतीं और माता की निगाह बदलने पर बाप तो उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखता। नैतिकता की जगह पाशविक वृत्ति ले लेती है।
जिन माता-पिताओं का दृष्टिकोण बच्चों के प्रति पाशविक वृत्तियुक्त हो जाता है, उस दुष्कर्म का प्रतिफल बुढ़ापे में उन्हें भुगतना पड़ता है। वे बच्चे भी बुढ़ापे में उन दुर्नीति अभिभावकों की कोई सहायता नहीं करते और उन्हें कुत्ते की मौत मरने देते हैं। आखिर वे जब बूढ़े होते हैं तो उन्हें भी अपने बच्चों से सेवा या सहयोग की कोई आशा नहीं रहती। 'यादृक्करणं तादृक्भरणं' इस कर्मसिद्धान्त के अनुसार उनकी अनैतिकता का फल उन्हें मिलता ही है। __पति-पत्नी के जीवन में प्रायः इस अनैतिकता ने गहरा प्रवेश पा लिया है। वैवाहिक जीवन का उद्देश्य कामुकता की तप्ति हो गया है। वेश्या जिस प्रकार शरीर सौन्दर्य, प्रसाधन एवं साज-सज्जा से लेकर वाक्जाल तक के रस्सों से आगन्तुक कामुक को बांधे रहती है, वैसी ही दुर्नीति औसत पत्नी को प्रायः अपने पति के साथ बरतनी पड़ती है। जब तक काम-वासनातृप्ति का प्रयोजन खूबसूरती से चलता है, तब तक वह प्रायः पत्नी को चाहता है। - आर्थिक लोभ एवं स्वार्थ का दूसरा पहलू भी विवाह के साथ जुड़ गया है। प्रायः निपट स्वार्थपूर्ण अनैतिकता की इस शतरंज का पर्याय बन गया है-दाम्पत्य जीवन! एक घर में रहते हुए भी पति-पत्नी में प्रायः अविश्वास का दौर चलता है। विवाह के पूर्व आजकल के मनचले युवक अपने भावी साथी के साथ जो लम्बे-चौड़े वायदे और हावभाव दिखाते हैं, वे सन्तान होने के बाद प्रायः फीके हो जाते हैं। इस प्रकार दाम्पत्य जीवन की इस अनैतिकतापूर्ण विडम्बना का जब घटस्फोट होता है, तब निराशा, दुःख और संकट ही हाथ लगता है।
क्या पारिवारिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय जीवन में परस्पर अविश्वास, निपट-स्वार्थान्धता, आत्मीयता का अभाव, नीति और धर्म से भ्रष्ट होने से वर्तमान युग का मानव प्रायः अपने आपको एकाकी, असहाय और दीन-हीन अनुभव करता है। छल और दिखावे का, बाहरी तड़क-भड़क का ताना-बाना बुनते रहने से मन कितना भारी, चिन्तित, व्यथित, क्षुब्ध और उखड़ा-उखड़ा रहता है, यह देखा जा सकता है। सारा परिवार अनैतिकता के कारण आन्तरिक उद्वेगों की आग में मरघट की चिता बनकर
१. अखण्ड ज्योति मार्च १९७२ में प्रकाशित 'अनास्था हमें प्रेत-पिशाच बना देगी,' लेख से पृ. १९
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