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________________ नैतिकता के सन्दर्भ में-कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता ५९ अतः यह दावे के साथ कहा जा सकता है, कि जैनकर्म-विज्ञानानुसार कर्मसिद्धान्त की नैतिकता के सन्दर्भ में पद-पद पर उपयोगिता है। यह बात निश्चित है कि सांसारिक मानव सदैव निरन्तर शुद्ध उपयोग में रहकर, ज्ञाता-द्रष्टा बनकर शुद्धकर्म पर या अरागद्विष्ट होकर अकर्म की स्थिति या स्वरूपरमण की स्थिति में नहीं रह सकता, इसलिए जैनकर्मविज्ञान के प्ररूपक तीर्थंकरों ने कहाशुभ-उपयोग में रहकर अनासक्तिपूर्वक कम से कम शुभ कर्म करते रहना चाहिए। नौ प्रकार के पुण्य इसी उद्देश्य से बताए हैं। साथ ही उन्होंने अशुभकर्मरूप अनैतिक कर्मों-अठारह पापस्थानकों तथा सप्तव्यसनों आदि पापस्रोतों से बचने का निर्देश भी दिया है। जैनकर्मविज्ञान कर्मानुसार फलप्रदान की बात कहता है "कदाचित विवशता से कोई त्रसजीवहिंसा आदि पापाचरण हो जाए तो जैनकर्मविज्ञान उसकी शुद्धि के लिए आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, भावना, अनुप्रेक्षा, त्याग, तप, क्षमापना प्रायश्चित्त आदि तप बताता है। इसलिए 'डॉ. ए. एस.थियोडोर' के इस भ्रान्त मन्तव्य का खण्डन हो जाता है कि "कर्मसिद्धान्त के न्यायतावाद में दया, पश्चात्ताप, क्षमा, पापों का शोधन करने का स्थान नहीं है।"२ १. देखें-(क) स्थानांगसूत्र नौवां स्थान (ख) १८ पापस्थानक के लिए देखें समवायांग १८वां समवाय २. . (क) "आलोयणाएणं....इत्थीवेय-नपुंसयवेयं च न बंधइ पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ।" (ख) "निंदणयाए ....पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करण-गुणसेढिं पडिवज्जई, क. पडिवन्ने य __णं अणगारे मोहणिज्ज कम्मं उग्घाएइ।" (ग) "गरहणयाए णं......जीवे अपसत्येहितो जोगेहितो नियत्तेइ, पसत्थे य पडिवज्जइ।" (घ) "पडिक्कमणे णं......वयछिद्दाणि पिहेइ। पसत्थजोग पडिवन्ने य अणगारे अणंत घाइपज्जवे खवेइ।।". (ङ) "काउसग्गे गं.....तीय-पडुपनं पायच्छित्तं विसोहेइ। विसुद्ध-पायच्छित्ते य जीवे निब्बुयहियए......सुहंसुहेणं विहरइ।" (च) "पच्चक्खाणे णं इच्छानिरोहं जणयई......सव्वदव्येसु विणीयतण्हे सीइभूए विहरइ।" (छ) 'पायच्छित्त करणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ निरइयारे यावि भवई......।' (ज) खमावणयाए णं पलायणभावं जणयइ।......सव्व-पाण-जीव-सत्तेसु मित्तीभावमुवगए भावविसोहि काऊण निब्भए भवइ॥ -उत्तराध्ययनसूत्र अ.२९ सू.५, ६,७,११,१२,१३,१६,15 (झ) Religion and Society Vol.No. XIV No. 4/1967. . . भावावर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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