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५८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) कर्मसिद्धान्त का कार्य : नैतिकता के प्रति आस्था जगाना, प्रेरणा देना।
___ डॉ. सागरमल जैन के अनुसार-"सामान्य मनुष्य को नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि कर्मों की शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार शुभाशुभ फल प्राप्त होने की धारणा में उसका विश्वास बना रहे।"
जैनकर्मविज्ञान जनसाधारण को नैतिकता के प्रति आस्थावान रखने और अनैतिक (पाप) कर्मों से बचाने में सफल सिद्ध हुआ है। जैनधर्म के महान् आचार्य कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि ने गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल को और उसके आश्रय से अनेक राजाओं, मंत्रियों और जनता को कर्मविज्ञान का रहस्य समझाकर अनैतिक कृत्य करने से बचाया है और नैतिकता- धार्मिकता के मार्ग पर चढ़ाया है। आचार्य हीरविजयसूरि तथा उनके शिष्यों ने सम्राट अकबर को कर्मविज्ञान के माध्यम से प्रतिबोध देकर, अनैतिक आचरणों से बचाकर नैतिकता के पथ पर चढ़ाया था। . .
इस युग में जैनाचार्य पूज्य श्रीलालजी महाराज, ज्योतिर्धर पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज, जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज आदि अनेक नामी-अनामी आचार्यों एवं प्रभावक मुनिवरों ने अनेक राजाओं, शासकों, ठाकरों, राजनेताओं एवं समाजनायकों तथा अपराधियों को जैनकर्मविज्ञान के माध्यम से मांसाहार, मद्यपान, शिकार, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, जूआ आदि अनैतिक कृत्य छुड़ाकर नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा दी है।
कई महान् सन्तों ने, जैनश्रावकों ने कर्मविज्ञान का संगोपांग अध्ययन करके, दूसरों को समझा-बुझाकर इसी बात पर जोर दिया है कि भगवान् या परमात्मा की वास्तविक सेवा-पूजा उनकी आज्ञाओं का परिपालन करना है।
एक ओर अपने आपको परमात्मा (खुदा या गॉड) का भक्त (इबादतगार) कहे परन्तु प्राणिमात्र के प्रति रहम (दया) करने, मांसाहार, मद्यपान, व्यभिचार आदि पापकर्म न करने की उनकी आज्ञाओं को ठुकराता जाए; वह खुदा, परमात्मा या सत् श्री अकाल का भक्त (बंदा) नहीं है। जैनकर्मविज्ञान इस तथ्य पर बहुत जोर देता है कि अगर अहिंसादि शुद्धकर्म (धर्माचरण) न कर सको तो, कम से कम आर्यकर्म (नैतिक आचरण) तो करो!"
१. जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ.१ २. देखें-पूज्य श्रीलालजी महाराज का जीवन चरित्र, पूज्य श्री जवाहरलालजी म. का जीवन चरित्र . अ.१ तथा जैनदिवाकर चौथमल जी महाराज आदि का जीवन चरित्र। ३. तव सपर्यास्तवाज्ञा-परिपालनम्-हेमचन्द्राचार्य ४. "जइ तंसि भोगे चइउं असत्तो, अज्जाई कम्माई करेह रायं।" -उत्तराध्ययनसूत्र अ.१३ गा.३२
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