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________________ नैतिकता के सन्दर्भ में कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता ५७ मद्यपान, हत्या, आगजनी, दंगा, आतंक, पशुबलि (कुर्बानी) आदि अनैतिक कृत्यों, घोर पाप कर्मों को करता रहता है। अन्यथा, अल्लाह की इबादत एवं पूजा करने वाला, अल्लाह की आज्ञाओं को ठुकराता है, उनके अनुसार नहीं चलता है, तब कैसे कहा जाए कि वह खुदा का भक्त या पूजक है ? दूसरे धर्म सम्प्रदायों आदि से घृणा विद्वेष की प्रेरणा : पाप कर्म के बीज __दूसरे, इस्लाम धर्म में मोमिन और काफिर का भेद करके घृणा और विद्वेष का बीज पहले से ही बो रखा है जोकि अशुभ कर्मबन्ध का कारण है। शुभाशुभ कर्मों का फल स्वयं कर्मों से ही मिल जाता है, खुदा को इस प्रपंच में डालने की जरूरत ही नहीं, खुदा (परमात्मा) की इबादत (भक्ति) करके उससे पाप-माफी का फतवा लेने की बात भी न्यायसंगत नहीं है। - जैनकर्मविज्ञान मनुष्य मात्र ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति आत्मौपम्य, मैत्रीभाव आदि रखने की बात कहता है। साथ ही नैतिकता से स्वर्ग तक की ही प्राप्ति होती है, मोक्ष नहीं। इसीलिए जैन कर्म-विज्ञान का स्पष्ट उद्घोष है कि शुद्धकर्म (धर्म) या अकर्म की स्थिति तक पहुँचो ताकि मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष (कर्ममुक्ति) प्राप्त कर सको, अगर वह न हो सके तो कम से कम नैतिक नियमों का पालन करो, ताकि शुभकर्म द्वारा सुगति प्राप्त कर सको। जैन कर्मविज्ञान : नैतिक संतुष्टिदायक ___ एक पाश्चात्य विचारक हॉग महोदय ने कर्म के विषय में एक ही प्रश्न उठाया है कि "क्या कर्म नैतिक रूप से सन्तुष्टि देता है ?"२इसके उत्तर में जैनकर्मविज्ञान स्पष्ट कहता है कि यदि कोई व्यक्ति धर्मनीति की दृष्टि से न्याय-नीति-पूर्वक शुभकर्म का आचरण करता है, अथवा अहिंसा, सत्य आदि सद्धर्म (शुद्धकर्म) का आचरण करता है तो वह निष्फल नहीं जाता। उसे देर-सबेर उसका सुफल मिलता ही है। सभी धर्मों और सम्प्रदायों में ऐसे महान् व्यक्ति हुए हैं, जो नैतिक एवं धार्मिक आचरण करके उच्च पद पर पहुंचे हैं, विश्ववन्द्य और पूजनीय बने हैं। उनके नैतिक एवं आध्यात्मिक आचरणों के सुफल प्राप्त करने में कोई भी शक्ति या देवी-देव बाधक नहीं बने। यह कर्मविज्ञान द्वारा नैतिक सन्तुष्टि नहीं तो क्या है? १. देखें, उत्तराध्ययन सूत्र का चित्तसंभूतीय अध्ययन १३ की ३२वीं गाथा २. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित-'मसीही धर्म में कर्म की मान्यता' लेख से उद्धृत वाक्य पृ.२०४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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