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________________ नैतिकता के सन्दर्भ में-कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता ५५ यद्यपि बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट में ईसामसीह की दस-दस आज्ञाएँ (कमाण्डमेंट्स) अंकित हैं, परन्तु उन्हें मानकर और बार-बार पढ़-सुनकर भी ईश्वरीय विश्वास और अनुग्रह प्राप्त कर लेने के चक्कर में लोग अनैतिक कर्म करने से नहीं चूकते। परन्तु जैनकर्मविज्ञान प्रारम्भ से ही नैतिक-धार्मिक आचरण (शुभकर्म) पर जोर देता है। वह केवल ईश्वर (परमात्मा-अर्हन्त एवं सिद्ध) पर विश्वास करने मात्र से या उनके द्वारा बताए हुए नैतिकता और धार्मिकता के यम-नियमों को मानने-सुनने मात्र से अथवा उन पर लम्बी-चौड़ी व्याख्या कर देने से किसी व्यक्ति का उसके पाप कर्म से. उद्धार नहीं मानता। जब तक पापकर्मी व्यक्ति अपने पापकर्मों की आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा और क्षमापना द्वारा शकिरण नहीं कर लेता, तब तक वह पापकर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। उसे इस जन्म में या फिर अगले जन्म या अन्मों में अपने अनैतिक कुकर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। इसी प्रकार सत्कर्म करने वाले या कर्मक्षयरूप धर्माचरण करने वाले व्यक्तियों पर तो परमात्मा का अनुग्रह स्वतः ही होता है। उसे परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त करने के लिये उनकी खुशामद करने की या पूजा-पत्री, भेंट-चढ़ावा आदि की रिश्वत नहीं देनी पड़ती। उसे अपने किये हुए सत्कर्मों (शुद्ध कर्मों) का फल देर-सबेर अवश्य मिलता है। नैतिकता के सन्दर्भ में जैनकर्मविज्ञान इसी तथ्य को व्यक्त करता है। यही कारण है कि जैनकर्मविज्ञान को मानने वाला व्यक्ति हिंसादि पापकर्म करते हुए हिचकिचाएगा। नरकायु और तिर्यञ्चायुकर्म बन्ध के कारण जैन कर्मविज्ञान की स्पष्ट उद्घोषणा है कि "महारम्भ (महाहिंसा), महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध, और मांसाहार-नरकगमन (गति) के कारण है; माया (कपट), गूढमाया, (दम्भ) झूठा तौल नाप करे, ठगी (वंचना) करे तो प्राणी तिर्यञ्चगति प्राप्त करता है।" इसमें कोई भी ईश्वर, देवी-देव या शक्ति उसे उसके पापकर्मों (अनैतिक आचरण) के फल से नहीं बचा सकते। वह स्पष्ट कहता है कि कारण अनैतिकता का होगा, तो उसका कार्य नैतिकता के फल का कदापि नहीं होगा। १. देखें-बाईबिल के गिरिप्रवचन ओल्ड टेस्टामेंट तया न्यू टेस्टामेंट। २. (क) चउहि ठाणेहिं जीवाणेरइयाउयत्ताए कम्म पगरेंति, तं.....महारम्भत्ताए, महापरिग्गहयाए . पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं। (ख) चउहि ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणिय (आउय) ताए कम्म पगरेंति, तं....माइल्नता, णियडिल्लताए, अलियवयणेणं,कूडतुल्ल-कूडमाणेणं। -स्थानांग, स्था. ४, उ. ४, सू. ६२८, २९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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