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________________ ५० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) ___“अज्ञानी (बाल) मूढ, मोहग्रस्त और कामासक्त व्यक्ति का दुःख शान्त नहीं होता। वह दुःखी व्यक्ति दुःखों के ही आवर्त (चक्र) में अनुपरिवर्तित होता (बार-बार जन्म-मरण करता) रहता है।'' "फिर उसे किसी समय एक ही साथ उत्पन्न अनके रोगों का प्रादुर्भाव होता है।" पूर्वकालिक नैतिक आचरण करने वालों का वर्तमान व्यक्तित्व : शास्त्रीय दृष्टि में ___ पूर्वकालीन नैतिक आचरण करने वाले व्यक्तियों के वर्तमान व्यक्तित्व के सम्बन्ध में आचारांग सूत्र कहता है--"जो पुरुष पारगामी अनैतिक आचरणों से तथा विषयभोगे से विरक्त हैं, वे लोभ संज्ञा को पार कर चुके, वे (वर्तमान में) विमुक्त (अकर्म) हैं। वे अलोभवृत्ति से लोभ के प्रति घृणा (विरक्ति) करते हुए प्राप्त कामभोगों का सेवन (अभिग्रहण) नहीं करते।" “अरति-संयम के प्रति अरुचि भाव को दूर करने वाला वह मेधावी क्षणमात्र में मुक्त हो जाता है।" "जो आयतचक्षु (दीर्घदर्शी) और लोक-द्रष्टा है, लोक की विभिन्नता को देखने वाला है, वह लोक के अधोभाग, ऊर्ध्वभाग और तिर्यग्भाग को और उनके स्वरूप एवं कारण को जानता है।" “इस मनुष्यजन्म में संधि (उद्धार का अवसर) जान कर जो कर्मों से बद्ध आस प्रदेशों को मुक्त करता है वही वीर है और प्रशंसा का पात्र है।"३ "यह शरीर जैसा अंदर से असार है, वैसा ही बाहर से असार है; और जैसा बाहर से असार है, वैसा ही अंदर से असार है। पंडित (ज्ञानी) पुरुष देह के अंदर की अशुचि १. (क) "कामकामी खलु अयं पुरिसे। से सोयति जूरति तिप्पति पिड्डति (पिट्टति) परितप्पति।" (ख) "बाले पुण णिहे काम-समणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवटै अणुपरियट्टइ।" -आचा. १/२/३ (ग) तओ से एगया रोग समुप्पाया समुपज्जति।" -आचारांग श्रु.१, अ.२, उ. ६, ३, ४ २. (क) विमुक्का हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो। लोभं अलोभेण दुगुंछमागे, लद्धे कामे नाभिगाहइ। • विण लोभ निक्वम्म एम अकम्मे जाणति पासति।" -आचारांग श्रु. १, अ. २, उ.२ (ख) "अरई आउट्टे से मेहावी खणंसि मुक्के ।" -वही, १/२/२ (ग) आययचक्खू लोगविपरसी, लोगस्स अहोभागं जाणइ, उड्ढे भागं जाणइ, तिरियं भाग जाणइ। -आचा. श्रु. १, अ. २, उ. २,४,५ ३. संधि विदित्ता इह मच्चिएहि, एस वीरे पसंसिए जो बद्धे पडिमोयए। -वही, १/२/५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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