SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैतिकता के सन्दर्भ में कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता ४९ आचरण के भावी परिणामों का दिग्दर्शन कराया गया है, उसी प्रकार भूतकालीन शुभ-अशुभ आचरण के अनुसार वर्तमान शुभाशुभ परिणामों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अतीत या भविष्य कर्मों के अनुसार होता है, यह सोच (देख) कर पवित्र नैतिक आचरणयुक्त महर्षि कर्मों को धुन कर क्षय कर डाले।' जैसे कि आचारांग सूत्र में पृथ्वीकायिक आदि जीवों की अमर्यादित हिंसा (समारम्भ) के परिणामों का निर्देश किया गया है कि "ऐसा करना उसके अहित के लिए है, अबोधि का कारण है", यह निश्चय ही ग्रन्थ (कर्मों की गांठ) है, यह मोह है, यह अवश्य ही मृत्यु रूप है, यही नरक का निर्माण है।"२ ___ संग्रहवृत्ति के अनैतिक पूर्वकृत कर्म और उसके परिणाम का उल्लेख करते हुए कहा गया है-"इस संसार में कई संग्रह वृत्ति वाले मानव बचे हुए या अन्य द्रव्यों का अनाप-शनाप संग्रह करते हैं तथा कई असंयमी पुरुषों के उपयोग के लिए संचय करते हैं, परन्तु वे उपभोगकाल के समय यदा-कदा रोगों से ग्रस्त हो पड़ते हैं।"३ जाति कुल गोत्र आदि के मद (अभिमान) के भावी परिणामों का निर्देश करते हुए कहा गया है-"अंधा होना, बहरा होना, गूंगा होना, काना होना, टूटा होना, कुबड़ा होना, बौना होना, कालाकलूटा होना और कोढ़ी होना, ये सब जाति आदि के मद ' (अभिमान) के कारण होता है। जाति आदि के मद से प्राणी इस प्रकार की अंगविकलता को प्राप्त होता है, यह न समझने वाला (मदग्रस्त) व्यक्ति हतोपहत होकर जन्म-मरण के चक्र में आवर्तन-भ्रमण करता है।।४ - कामभोगों में ग्रस्त मानव की दुर्दशा का वर्णन करते हुए कहा गया है-"यह कामकामी (कामभोगों की कामना करने वाला) पुरुष निश्चय ही शोक (चिन्ता) करता है, विलाप करता है, मर्यादाभ्रष्ट हो जाता है, तथा दुःखों और व्यथाओं से पीड़ित और संतप्त हो जाता है।" १. विहुयकप्पे एयाणुपस्सी निज्झोसइत्ता खवगे महेसी। -आचारांग १/३/३ २. (क) 'तं से अहियाए तं से अबोहिए।" (ख) एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।" -आचारांग सूत्र श्रु. १ अ. १, उ. २, ३, ४, ५, ६,७ ३. (क) "उवाइय-सेसेण वा सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ।" (ख) "तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जति।" __ -आचारांग, श्रु.१,अ.२, उ.१ ४. (क) "तं जहा-अंधत्तं, बहिरत्तं, मूयत्तं, काणत्तं, कुंट्टत्तं, खुज्जत्तं, वड़भत्तं, सामत्तं सबलत्तं।" ... (ख) "से अबुज्झमाणे हतोवहते जाइमरणं अणुपरियट्टमाणे।" -आचारांग श्रु. १ अ.२ ३.३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy