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________________ व्यावहारिक जीवन में-कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता ४३ कर्मविज्ञान सिंहवृत्ति से सोचने की प्रेरणा देता है। कर्मविज्ञान साधक को सिंहवृत्ति से सोचने की प्रेरणा देता है। अज्ञानी आत्मा दुःख या संकट देने वाले पर कुत्ते की तरह क्रोध पूर्वक झपटता है, उसे ही वह उपद्रव का मूल कारण समझता है। जबकि ज्ञानी साधक सिंहवृत्ति से सोचता है। वह दुःख या संकट देने वाले पर रोष-द्वेष नहीं करता। सिंह को कोई ढेला मारता है या उस पर बाण चलाता है, तो वह ढेले या बाण को नहीं, ढेला फैंकने या बाण चलाने वाले को पकड़ता है, उसी पर प्रहार करता है।' यह सिंहवृत्ति है, लेकिन श्वानवृत्ति इससे विपरीत है। कुत्ता ढेला या लाठी मारने पाले को नहीं, ढेले या लाठी को ही उछलकर मुंह में पकड़ लेता है। सिंहवृत्ति वाला मानव यह समझता है कि ये बेचारे तो मेरे संकट या दुःख में निमित्त मात्र हैं। इन पर रोष या द्वेष क्यों करूँ? दुःख और संकट का मूल कारणउपादान तो मेरे अंदर है, मेरा अपना कृतकर्म है। अतः ज्ञानी साधक सिंहवृत्ति से सोच कर अपने कर्म की ओर देखता है। 'सूत्रकृतांग' की भाषा में वह यही सोचता है कि “जैसा मैंने कर्म किया, वैसा ही फल दुःख के रूप में मेरे सामने आ गया।" अपने किये हुए कर्म का फल ही तो आत्मा को दःख के रूप में मिलता है। अगर मैंने आम बोया होता, शुभ कर्म करता, तो उसके सुन्दर सुफल मिलते। आज ये कांटे मेरे पैरों में चुभते हैं, इसका कारण मेरे द्वारा बबूल का कँटीला पेड़ बोया गया ही है। उसका फल तो दुःखरूपी कांटों के रूप में ही चुभना ही था। कर्मसिद्धान्त पर दृढ़ आस्थावान् व्यक्ति उपादान को देखता है . निष्कर्ष यह है कि कर्मसिद्धान्त पर दृढ़ आस्था रखने वाला व्यक्ति दूसरों पर रोष, द्वेष नहीं करता, न ही दसरों को दोष देता है। वह सोचता है कि ये बाहर के व्यक्ति तो केवल निमित्त हो सकते हैं। उपादान कारण तो मेरे अन्तर में ही है। मेरे कर्म शुभ होते तो ये बाहर के निमित्त भी शुभ होते। बाहर के निमित्त अपने आप में अच्छे या बुरे नहीं हैं। उन्हें शुभ या अशुभ अथवा अमृत या विष बना लेना कर्मसिद्धान्तमर्मज्ञ के बांये हाथ का खेल है। . वह इसी प्रकार सोचता है कि ये जितने भी दुःख या संकट मेरे पर आ रहे हैं उन सबको न्यौता देने वाला मैं ही हूँ। अब ये आये हैं तो इनके आने पर इन मेहमानों पर क्यों १. 'उपेक्ष्य लोष्ठ-क्षेप्तारं, लोष्ठं दशति मण्डलः। सिंहस्तु शरमुपेक्ष्य शरक्षेप्तारमीक्षते॥ -पार्श्वचरित्रम (भावविजय) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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