SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) रोष-द्वेष करूँ? क्यों आँसू बहाऊँ ? दीन-हीन बनकर किसी के आगे गिडगिडाऊँ ? क्यों हायतोबा मचाऊँ ? हँसता, मुस्कराता क्यों न इनका स्वागत करूँ? क्यों न अपने किये हुए कर्मों का कर्जा खुशी से चुका जाऊँ ? अगर प्रसन्नतापूर्वक कर्मों का ऋण अदा कर दूंगा, तो आगे के लिए कर्जदार नहीं बनूंगा, भविष्य के लिए कर्मबन्ध नहीं कर पाऊंगा। ये विपदा-संपदाएँ, सुख-दुःख मेरे ही कर्मों के फल हैं तो मैं दीन-हीन बनकर क्यों गिड़गिड़ाऊँ ? हंसते-हंसते समभाव से इन्हें भोगकर इनसे क्यों न छुटकारा प्राप्त करूं? कर्मसिद्धान्त पर विश्वास से निश्चिन्तता एवं दुःख-सहिष्णुता ___इस प्रकार कर्मसिद्धान्त पर विश्वास से व्यक्ति को ऐसी निश्चिंतता हो जाती है कि जैसे मेरे पूर्वकृत कर्म होंगे, तदनुसार फल मिलने में कोई सन्देह नहीं है। कर्मों का ऋण तो मुझे देर-सबेर चुकाना ही पड़ेगा, फिर मन में ग्लानि न करके समभावपूर्वक ही इन्हें भोग लूं, ताकि नये कर्मों का बन्ध न हो और पुराने कर्मों का क्षय हो जाए। कर्मसिद्धान्त पर विश्वास से कार्य में सफलता और हार्दिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। प्रतिकूल परिस्थिति के समय निमित्तों को कोसने की अपेक्षा शान्त भाव से स्थिर रहने की अथवा केवल मेरे पर ही नहीं, बड़ों-बड़ों पर भी विपत्तियाँ आई हैं, इसलिए इनसे न घबरा कर समभाव से भोग लेना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार की आश्वासनरूपी प्रेरणा कर्मसिद्धान्त से मिलती है। कर्म-सिद्धान्त पर विश्वास से मनुष्य में दुःख सहने की क्षमता बढ़ती है तथा भावी जीवन को उज्ज्वल-समुज्ज्वल बनाने की प्रेरणा भी मिलती है। ____ कर्मसिद्धान्त आत्मा को दुःख में घबराहट एवं सुख में संयत कर उच्छृखल एवं उद्दण्ड होने से बचाता है। वह शिक्षक की तरह प्रतिकूल परिस्थिति में यथार्थ मार्गदर्शन करके विघ्न-बाधाओं और विपत्तियों की परवाह न करके धर्माचरण करने का पाठ पढ़ाता है। वह मानव जीवन में आशा और स्फूर्ति का संचार करके उसे विकास-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। दुःख का कारण स्वयं में ढूंढकर अनुकूलता-प्रतिकूलता में दृढ़ ____एक बात और है, जिस हृदयभूमि पर दुःख का विषवृक्ष लहलहाता है, उसका बीज भी उसी भूमि में बोया हुआ होना चाहिए। हवा, पानी आदि बाह्य निमित्तों के समान उस दुःख-वृक्ष को अंकुरित-पल्लवित होने में कदाचित कोई अन्य व्यक्ति निमित्त हो सकता है। परन्तु वह दुःख-वृक्ष का वास्तविक बीज नहीं होता। दुःखतरु का वास्तविक बीज बाहर नहीं, मेरे अपने ही अन्दर है, मेरे ही कृतकर्मों का परिणाम है। इस प्रकार के १. (क) 'जंजारिसं पुर्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए।" (ख) कर्मवाद : एक अध्ययन, पृ. ५८-५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy