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४२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
यह सिद्धान्त उस संतप्त मानव को कहता है-'मानव! जिस परिस्थिति को पाकर तू रोता-चिल्लाता है, हायतोबा मचाता है, वह तेरे स्वयं के द्वारा ही निर्मित है, इसलिए इसका फल तुझे ही भोगना है। ऐसा कदापि सम्भव नहीं है, कर्म त स्वयं करे और उसका फल कोई और भोगे।' कर्मसिद्धान्त मनुष्य को अपना भाग्यविधाता स्वयं कर्म का प्रेरक
जैन कर्मसिद्धान्त यह कहता है, कि मानव तेरी वर्तमान अवस्था जैसी भी, जो कुछ भी है, वह किसी दूसरे के द्वारा (ईश्वर या किसी देव या मानव आदि के द्वारा) तेरे पर नहीं लादी गई है, अपितु तू स्वयं उसका निर्माता है। तू ही अपना भाग्यविधाता है। जीवन में जो कुछ उत्थान-पतन, विकास-हास, तथा सुख-दुख आदि आते हैं, उनका दायित्व तेरे पर ही है, किसी दूसरे पर नहीं। उस दुःख या संकट को काटने की शक्ति भी तेरे में ही है। इसलिए तुझे किसी भी देव, ईश्वर या शक्ति की दया के लिए गिड़गिड़ाना या भाग्य या होनहार के भरोसे अकर्मण्य होकर बैठना नहीं है। जो भी समस्याएँ या बाधाएँ सामने अड़ी-खड़ी हैं, उनसे डरने की या घबराने की आवश्यकता नहीं; किन्तु सिंहवृत्ति से सोचने और साहस एवं धैर्य के साथ समभाव से कर्मफल भोगने की आवश्यकता है। यही सोचना है कि यह सब पूर्वकृतकर्मों का फल है, इसका सामना स्वयं अपने पुरुषार्थ से करना है।
इस आशा के साथ व्यक्ति कर्मविज्ञान का सम्बल पाकर मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करता हुआ एक दिन अपनी आत्मा को कर्मजल-परिपूर्ण संसार-समुद्र से निकाल कर मोक्ष नगर में पहुँचा सकता है। कर्म-सिद्धान्त मानव के हाथों में अपने भाग्यनिर्माण की चाबी सौंपकर उसे निश्चिन्त बना देता है। वह मानव के भाग्य को ईश्वर या किसी अदृश्य शक्ति के हाथों में नहीं सौंपता। एक विदेशी विचारक के शब्दों में कर्म-सिद्धान्त का यह अमर सन्देश है
"I am the master of my fate,
I am the captain of my soul." मैं ही अपने भाग्य का स्वामी हूँ और मैं ही अपनी आत्मा का अधिनायक हूँ। मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध कोई नहीं चला सकता। मेरे जीवन का विकास या ह्रास, अथवा मेरे भाग्य का उत्थान या पतन मेरे हाथों में है। अपने जीवन में मनुष्य जैसा, जितना और जो कुछ अच्छा या बुरा निमित्त या संयोग पाता है, वह सब उसकी अपनी बोई हुई खेती है। अतः जीवन में निराश-हताश या दीन-हीन बनने की आवश्यकता नहीं है।' कर्मसिद्धान्त की यही उपयोगिता है।
१. कर्मवाद : एक अध्ययन (सुरेशमुनि) से सार-संक्षेप पृ. ५७
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