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________________ व्यावहारिक जीवन में-कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता ४१ कष्ट पड्यां समता रमे, निज आतम ध्याय। 'देवचन्द्र' तिन मुनितणा, नित वन्दू पाय॥' कर्मसिद्धान्त का स्वर्णिम सन्देश इस प्रकार कर्मसिद्धान्त का सन्देश दुःखों की ज्वालाओं से दग्ध मनुष्यों के घावों पर मरहम-पट्टी का काम करता है। उनके अशान्त हृदयों में शान्ति का झरना बहाता है। दुःख और निराशा के गर्त में पड़े हुए मानवों को कर्मसिद्धान्त वहाँ से निकाल कर आशा के विशाल भवन में पहुंचा देता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में कर्मसिद्धान्त का सन्देश आशावाद का संचार करता है, जिसके कारण व्यक्ति का चिन्तन ठीक दिशा में होने लगता है। वह यही सोचता है कि ये सुख-दुःख, शूल-फूल, हंसना-रोना आदि सब अपने पूर्वकृत कर्मों के खेल हैं। जिंदगी की यात्रा में सुख-दुःख धूप-छांह के समान हैं। जैसे-पतझड़ के बाद बसन्त आता है, तो वृक्षों में फिर हरियाली लहलहाने लगती है, वैसे ही दुःख और विपत्ति के बाद भी सुख और सम्पदा की हरियाली आती है। सुख और दुःख दोनों ही स्थायी नहीं हैं। शूल को फूल और फूल को शूल बनते क्या देर लगती है ? रात के बाद दिन और दिन के बाद रात की तरह जीवनयात्रा में भी अंधेर: उजाला अथवा उतार-चढ़ाव आता रहता है। अतः सुख में फूलो मत, दुःख में तड़फो मत, घबराओ मत। दोनों जीवन विकास के लिए अनिवार्य हैं। अगर यह तथ्य जीवन में रम गया तो यहाँ भी सुख-चैन की वंशी बजाओगे और आगे भी आनन्द मंगल पाओगे। यही कर्मसिद्धान्त का स्वर्णिम सन्देश है। कर्मसिद्धान्त.की सबसे बड़ी उपयोगिता ___ कर्मसिद्धान्त की सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि वह मानव को आत्महीनता एवं आत्मदीनता के गर्त में गिरने से बचाता है। जब मानव अपने जीवन में निराश और हताश हो जाता है, उसे अपने चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता है, यहां तक कि उसका गन्तव्य पथ भी लुप्त हो जाता है। ऐसे समय में उक्त दुःखी आत्मा को कर्मसिद्धान्त ही एक मात्र ऐसा है, जो धैर्य, आश्वासन और साहस प्रदान करता है। १. उपाध्याय देवचन्द्र जी रचित काव्य २. (क) कर्मवाद : एक अध्ययन (सुरेशमुनि) से भावांश पृ. ५९ (ख) जैनतत्त्वकलिका क. ६ (आचार्य श्री आत्माराम जी ) से पृ. १५२ ३. जिनवाणी : कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'जीवन में कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता' लेख से भावांश पृ. १४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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