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४० - कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
उपवश लड़ाई कर बैठता है, उसका परिणाम आता है स्व-पर के लिए आकुलता, अशान्ति, उद्विग्नता, भीति और कलह-क्लेश तथा तू-तू, मैं-मैं का विषम वातावरण! अतः आकुल और अशान्त होकर तू अपने मस्तिष्क को क्यों खराब करता है ?
विश्वास रख! धैर्य धारण कर! जीवन में धर्माचरण से दुःख या संकट नहीं आते। धर्माचरण तो दुःखों और पापों को नष्ट करके जीवन का कल्याण करता है, सुख-शान्ति पहुँचाता है, भविष्य को उज्ज्वल बनाता है। अतः धर्माचरण के प्रति अपनी आस्था को डावाँडोल मत बना।' कर्मसिद्धान्त द्वारा आश्वासन
इसके अतिरिक्त कर्मसिद्धान्त यह आश्वासन देता है कि केवल तेरी वात क्या है? बड़े-बड़े महापुरुषों को कर्मों का फल भोगना पड़ा है। कर्म किसी को नहीं छोड़ते, निकाचित रूप से बंधे हुए कर्मों का फल तो अवश्यमेव भोगना पड़ता है।
धर्मवीर सेठ सुदर्शन को कर्मवश शूली पर लटकना पड़ा, मुनिवर स्कन्धक को पांच सौ शिष्यों सहित कोल्हू में पिलना पड़ा, अयोध्यानरेश सत्यवादी हरिश्चन्द्र को रानी तारा के साथ काशी के बाजार में विकना पड़ा, देवकी के लाल मनि गजमूकमाल के सिर पर पूर्वकर्मों के कारण धधकते अंगारे रखे गए। भगवान महावीर के कानों में कीले टोके गए। अन्य अनेक महापुरुषों को कर्मों के कारण नाना विपत्तियाँ सहनी पड़ी।
अतः तू ही क्यों घबराता है। अपने से ऊपर वालों की ओर मत देख। जो तुझसे अधिक व्यथित-दुःखित हैं,उनकी ओर देख! संसार में तुझसे भी अधिक दुःखी, चिन्तित एवं व्यथित मानव हैं, उनकी अपेक्षा तो तू आनन्द में हैं। अतः क्यों अधीर और निराश होता है? उपाध्याय देवचन्द्र जी के शब्दों में कर्मसिद्धान्त का मूल सन्देश पढ़िये
"रे जीव साहस आदरो, मत थाओ तुम दीन। सुख-दुःख आपद-सम्पदा, पूरव कर्म-अधीन ॥ पूर्वकर्म-उदये सही, जे वेदना थाय। ध्यावे आतम तिण समे, ते ध्यानी-राय॥ ज्ञान-ध्याननी बातड़ी करणी आसान। अन्त समै आपद् पड्यां, विरला करे ध्यान ॥
का अमृत (पं. ज्ञानमुनि) में भावांश उद्धृत पृ.३१
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