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________________ व्यावहारिक जीवन में-कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता ३९ लगता है। जब कोई वश नहीं चलता तो वह निराश-हताश होकर आरब्ध कार्य से मुख मोड़ लेता है। विपत्ति के समय कर्म-सिद्धान्त आत्मनिरीक्षण एवं उपादान देखने की प्रेरणा देता है फिर वह विपत्ति के समय आत्मनिरीक्षण न करके अथवा अपना उपादान न देखकर एक ओर बाहरी दुश्मनों को बढ़ा लेता है; दूसरी ओर, बुद्धि अस्थिर हो जाने से उसे अपनी भूल नहीं दिखाई देती। फलतः धर्म एवं निष्काम या शुभकर्म करने की अपेक्षा उसे धर्म एवं भगवद्वचनों में कोई विश्वास नहीं रहता। सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयरूप या श्रुत-चारित्ररूप धर्म से कल्याण होता है, स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति होती है, धर्म से पारिवारिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक सुख-शान्ति प्राप्त होती है, इन सब बातों पर से उसकी आस्था डगमगा जाती है।' ईमानदारी, सत्यता, प्रामाणिकता, न्याय-नीति एवं अहिंसादि धर्म को वह ढकोसल समझने लगता है। किसी हितैषी पर भी उसका विश्वास नहीं जमता। ऐसी विपन्न स्थिति में मनुष्य को ऐसे सत्परामर्शदाता गुरु, मार्गदर्शक या निर्देशक की आवश्यकता है जो उसके बुद्धि-नेत्र को स्थिर करके उसे यह समझाने में सहायक हो सके कि उपस्थित संकट, विघ्न या दुःख का मूल कारण क्या है ? कर्मसिद्धान्त ही ऐसा गुरु या मार्गदर्शक है। विपन्नावस्था में कर्मसिद्धान्त की प्रेरणा कर्मसिद्धान्त उस विपन्न एवं व्याकुल मानव से कहता है-भोले मानव! क्यों घबड़ाता है ? निराश और हताश होकर किंकर्त्तव्यविमूढ़ क्यों बन बैठा है ? जीवन में संकटों के जो बादल उमड़-घुमड़ कर बरस रहे हैं, प्रतिकूल परिस्थितियों की जो वृष्टि हो रही है, इसका मूल कारण तू स्वयं है, तूने स्वयं ही इनके बीज बो रखे हैं। तू जो इस संक्रट या दुःख के लिए, विघ्न-बाधा या आपत्ति-विपत्ति के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराता है, दूसरों को दोष देता है कि अमुक व्यक्ति ने मुझे दुःखी कर डाला, अमुक साथी ने मुझे मुसीबत में फंसा दिया, अमुक व्यक्ति ने मेरे कार्य में बाधा पहुँचाई, अथवा अमुक सहयोगी ने मुझे हानि पहुँचाई, अमुक ने मेरा किया-कराया काम बिगाड़ दिया; तथा ऐसा सोचकर तू किसी पर रोष करता है, किसी को अपना शत्रु मान बैठता है, किसी के साथ १. (क) ज्ञान का अमृत (पं.ज्ञान मुनिजी) से भावांश पृ.३० . (ख) कर्मग्रन्थ : भाग १ प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी) से पृ.५ . २. (क) कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावना (पं. सुखलालजी) से भावांश पृ.५ (ख) कर्मवाद :एक अध्ययन (सुरेशमुनि) से भावांश, पृ. ५६ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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